Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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२ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ
आविर्भाव होता है, वैसे ही पृथिवी आदि चारों भूत जब देहरूपमें परिणत होते हैं तब उस परिणाम विशेषसे उसमें चैतन्य उत्पन्न हो जाता है।' उस चैतन्य विशिष्ट देहको जीव कहा जाता है । " 'मैं स्थूल हूँ', 'मैं कृश हूँ', 'मैं प्रसन्न हूँ' आदि अनुभवोंका ज्ञान हमें चैतन्ययुक्त शरीरमें होता है, भूतों के नाश होने पर उसका भी नाश हो जाता है। अतः चैतन्यविशिष्ट शरीर ही कर्ता तथा भोक्ता है, उससे भिन्न आत्मा के अस्तित्वका कोई प्रमाण नहीं है। शरीर अनेक हैं अतः उपलक्षणसे जीव भी अनेक हैं, देहके साथ उत्पत्ति और विनाश स्वीकारनेसे वह देहाकार और अनित्य है । चार्वाकका एकदेश कोई इन्द्रियको, कोई प्राणको और कोई मनको भी आत्मा मानते हैं। कोई चैतन्यको ज्ञान और देहको जड़ मानते हैं । उनके मत में आत्मा, ज्ञान- जड़ात्मक है ।"
बौद्धदर्शन के अनुसार - आत्मा से किसी स्थायी द्रव्यका बोध नहीं होता है किन्तु विज्ञान - प्रवाहका बोध होता है, विज्ञानगुणरूप होनेके कारण उसका कोई परिणाम नहीं है । बुद्धको उपनिषद् प्रतिपादित आत्मा के रहस्य को समझाना प्रधान विषय था । सकल दुष्कर्मों के मूलमें इसी आत्मवादको कारण मानकर उन्होंने आत्मा जैसे एक पृथक् पदार्थकी सत्ताको ही अस्वीकार किया है ।" मोक्षकी साधना के विषय में प्रायः बुद्धदेवका उपनिषदोंसे कोई मतभेद नहीं दीखता । किन्तु आत्माको लेकर बुद्ध और उपनिषत्कारों में जो भेद है, उसे हम इस प्रकार से रख सकते हैं कि जहां उपनिषदें यह मानती हैं कि मोक्ष आत्मज्ञानसे होता है, वहां बुद्धदेवका यह विचार है कि आत्माका ज्ञान मोक्ष नहीं, जीवके बन्धनका कारण है ।... आत्माका अस्तित्व है, तत्रतक हम 'मैं और मेरा ' के बन्धनसे छूट नहीं सकते' । विज्ञानों के प्रवाहरूप आत्मा प्रतिक्षण नष्ट होने के कारण अनित्य है । पूर्व-पूर्व विज्ञान उत्तरोत्तर विज्ञान में कारणरूप होनेसे मानसिक अनुभव और स्मरणादिक की असिद्धि नहीं है । बौद्ध अनात्मवादी होते हुए भी कर्म, पुनर्जन्म और मोक्षको स्वीकार करते हैं । डोक्टर फरकोहरका मत है कि 'बुद्धदेव पुनर्जन्मको मानते थे किन्तु आत्मा के अस्वित्वमें उनका विश्वास नहीं था' ।"
यदि बुद्ध आत्माकी नित्यताको नहीं मानते थे तो पुनर्जन्म में उनका विश्वास कैसे हो सकता था ? बचपन, युवा और वृद्धावस्था में एक ही व्यक्तिका अस्तित्व कैसे हो सकता है ?
प्रतीत्यसमुत्पाद और परिवर्तनवाद के कारण नित्य आत्माका अस्तित्व अस्वीकार करते हुए भी बुद्ध यह स्वीकार करते थे कि जीवन विभिन्न अवस्थाओं का एक प्रवाह या संतान है । जीवनकी विभिन्न अबस्थाओंमें पूर्वापर कार्य-कारण सम्बन्ध रहता है इसलिये संपूर्ण जीवन एकमय ज्ञात होता है । जैसे दीपकज्योत; वह प्रतिक्षण भिन्न होनेपर भी अविच्छिन्न ज्ञात होती है ।
१ किण्वादिभ्यो मदशक्तिवच्चैतन्यमुपजायते । - सर्व० द० संग्रह. पृ० २ |
२
चैतन्यविशिष्टदेह एवात्मा । - सर्व० द० संग्रह. पृ० ३ ।
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४
विज्ञानघन एवैतेभ्यो भूतेभ्यः समुत्थाय तान्येवानुविनश्यति न प्रेत्य संज्ञास्ति । - बृ० २।४।१२ । चार्वाकैकदेशिन एव केचिदिन्द्रियाण्येवात्मा, अन्ये च प्राण एवात्मा, अपरे च मन एवात्मेति मन्यन्ते । सर्व० द० संग्रह. पृ० ५६ ।
चैतन्यविशिष्टे देहे च चैतन्यांशो बोधरूपः देहांशश्च जडरूप इत्येतन्मते जडबोधतदुभयरूपो जीवो भवति । - सर्व० द० संग्रह. पृ० ५६ ।
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विज्ञानस्वरूपो जीवात्मा । सर्व० द० सं० पृ० ५७ ।
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दीर्घ० नि० पृ० ११३ ११५ । भारतीय दर्शन । बलदेव । उपाध्याय पृ० १८५ ।
८ १ सस्कृतिके चार अध्याय । दिनकरजी । पृ० १३५-१३६ ।
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