Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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जैन धर्मका प्रसार : २३ कितने ही जैन स्थल बनवाये तथा कन्नडमें कितने ही ग्रंथ रचें। १४वींसे १७वीं शती तक संगीतपुर, गेरसोप्पे, कारकल इत्यादि जैनों के अच्छे केन्द्र रहे हैं। बेलारी, कुडाप्पा, कोयंबटूर आदि जिलों में तथा कोल्हापुर, चामराजनगर, रायदुर्ग, कनकगिरि इत्यादिमें भी जैनों का प्रभाव बना रहा। शृंगेरीने १२वींसे १६वीं तथा वेलूरने १४ वींसे १९वीं शती तक जैन धर्मकी रक्षा की।
उस कालके सिंहकीर्ति, वादी विद्यानंद आदि विद्वानों के नाम उल्लेखनीय हैं। इनके अलावा कितने ही साहित्यकार और पंडित उस समय में हुए जो जैन धर्मकी सेवा करते रहें। इनमें पंडित बाहुबलि, केशववर्णि, मधुर, यशःकीर्ति, शुभचंद्र इत्यादिको गिनाया जा सकता है।
यह है जैन धर्म के प्रसारका ऐतिहासिक सिंहावलोकन। अपने प्रारंभिक कालसे मध्ययुगीन काल तक जैन धर्म उचित रूपसे पनपता रहा। वह पूर्व देशसे दक्षिण और पश्चिमकी ओर उत्तरोत्तर विकासशील होता गया, यहाँ तक कि दक्षिणमें तो वह सुवर्ण युगोंमें पला। इन आधारों परसे जैनोंकी संख्या उस समय अन्य धर्मियों के अनुपातमें अधिक रही होगी ऐसा अनुमान लगाने में कोई अतिशयोक्ति नहीं कही जा सकती। एक समय दक्षिण देशमें जैनों और बौद्धोंका ही बोलबाला था। उस प्रदेशमें हिन्दू धर्मने बादमें प्रवेश किया है, पहले वहाँ पर हिन्दू धर्मका इतना प्रभाव नहीं था। वर्तमान स्थितिको देखते हुए जैन धर्मकी अवस्था बिल्कुल विपरीत सी लगती है। जैनोंकी संख्या अनुपात में कम हो गयी है। इस अवनतिके क्या कारण हो सकते हैं ? पूर्वकालमें अनेक उच्च कोटिकी विभूतियाँ विविध क्षेत्रोमें हुयी, उनकी संख्या उत्तरोत्तर कालमें घटती ही गयी है। पहलेका शासनप्रेम, उदार वृत्ति और निस्वार्थ सेवा आजकल क्षीण होती जा रही है। सामान्य प्रजाकी अनुकूलताके अनुसार धर्मकी गतिशीलता बन्दसी हो गयी है, जबकि यह सर्वविदित है कि गति ही जीवन है। एक तरफ छोटी छोटी बातोंमें अधिकसे अधिक सूक्ष्मदर्शी हो गये हैं जिनकी उपादेयता सीमित है, तो दूसरी ओर बड़ी बड़ी बातोंमें उदासीन वृत्ति घर कर गयी है जिनका कार्यक्षेत्र विस्तृत है और जो वास्तविक रूपमें जीवन के सह-अस्तित्वसे सम्बन्धित हैं। अनेकान्त और स्याद्वाद पुस्तकों और सिद्धान्त तक ही सीमित रह गया। सामाजिक और धार्मिक जीवनमें उसे पूर्ण शक्तिसे अपनाने के अनिवार्य प्रयास ही नहीं हुए। इधर देखें तो गृहस्थधर्म पर साधुधर्मका प्रभाव बढ़ गया है तो उधर साधुधर्ममें गृहस्थ कर्मोंका प्रवेश। दो विभिन्न क्षेत्रोंकी मर्यादाओंका अतिक्रमण होनेसे साधारण जीवन दुरूह सा हो रहा है। भगवान महावीरने उपासक
आनन्दको गृहस्थधर्मके व्रतों को धारण करवाते समय यह कभी भी नहीं कहा था कि तुम कृषिकार्यका त्याग कर दो। उन्होंने तो इतना ही कहा था कि 'अहा सुहं' धर्माचार स्वीकार करो। अर्थात् अपनी शक्ति और मनके परिणामों के अनुसार धार्मिक मर्यादाओंका पालन करो। लेकिन अर्वाचीन धर्मका स्वरूप ही बदल गया है। कृषिकार्यको घृणास्पद समझा जाता है, उसमें हिंसा मानी जाती है जबकि 'विरुद्धरज्जाइक्रम्म' 'कुडतुलकुडमाण' और 'तप्पडिरूवगववहार' (अर्थात् राज्यके कानूनों के विरुद्ध कार्य करना, झुठे तोल और झूठे नापका प्रयोग करना और नकली वस्तुओंको असलीके रूपमें चलाना) नामक अतिचारोंके पोषणमें गौरव समझा जाने लगा है। कृषिकार्य साधु तथा गृहस्थके जीवन के निभाने के लिए मौलिक आवश्यक्ता है, जिस प्रकार वायु प्राणधारणके लिए। उस हिंसाको हिंसा नहीं, माना गया है। प्रथम तीर्थंकर ऋषभने तो स्वयं ही कृषिकार्यका उपदेश दिया था। इस दृष्टिको ध्यान में रखते हुए कृषिकार्य-विरोधी उपदेश कहाँ तक उचित और योग्य ठहरते हैं। ऐसी ही अनेक बातें और मुद्दे हैं जिन पर गृहस्थ, साधु, विद्वान् और आचार्य समुदायको विचार करना चाहिए तथा उन मूल कारणोंको ढूँढ निकालना चाहिए जिनके फलस्वरूप जैन धर्मका ह्रास होता जा रहा है, जबकि आबादीकी संख्याके
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