Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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४४ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ
सकता है। जैन साहित्य एवं कला के विकास की दृष्टिसे उक्त काल स्वर्णकाल ही कहा जा सकता है। इस स्वर्णकालका जनक तोमरवंशी राजा डूंगरसिंह (वि० सं० १४८१ - - १५१० ) एवं उनका पुत्र राजा कीर्त्ति - सिंह (वि० सं० १५१० - १५३६ ) है । इन्हीं राजाओंके समय में अपभ्रंश भाषांके धुरन्धर महाकवि रद्दधू भी हुए.. हैं, जिन्होंने लगभग तीससे भी अधिक विशाल ग्रन्थोंका प्रणयन किया था, जिनमेंसे अभी चौबीस हस्तलिखित ग्रन्थ उपलब्ध हैं । अग्नी देवी प्रतिभा, ओजस्वी कविता, अगाध पांडित्य, कठोर साधना एवं सहज एवं उदार स्वभाव के कारण ग्वालियर राज्य में ऐसे लोकप्रिय हुए कि वे वहाँके जन-जन के कवि एवं श्रद्धाभाजन बन गए । विद्यारसिक तथा जैनधर्मके परमश्रद्धालु राजा डूंगरसिंह तो उनके व्यक्तित्व से ऐसे प्रभावित हुए कि उन्होंने कविको अपने दुर्गमें ही रहकर उसे अपनी साहित्य - साधनाका केंद्र बनानेका साग्रह अनुरोध किया, जिसे कविने स्वीकार भी कर लिया था । कविने स्वयं लिखा है
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गोवगिरिदुग्गमि णिवसंत उ बहुसुहेण तहिं । सम्मइ० ११३ | १०
महाकवि रइधू जैन थे अतः समस्त जैन समाज भी उनका अनुयायी था । जो अर्थहीन थे वे दर्शनस्पर्शनसे कृतकृत्य होते थे तथा जो धनकुबेर थे वे उसके संकेतपर अपनी गाढी कमाई की थैलियोंका सदुपयोग करनेके लिये तत्पर रहते थे। ऐसे लोगों में संघवी कमलसिंह, खेल्हा ब्रह्मचारी, असपति साहू, रणमल साहू, खेऊ साहू, लोणा साहू, हरसी साहू, भुलण साहू, तोसउ साहू, हेमराज, खेमसिंह साहू, आहू साहू, संघवी नेमदास, श्रमणभूषण कुन्युदास, होलू साहू एवं कुशराज आदिके नाम उल्लेखनीय हैं। धू - साहित्य के निर्माणमें उक्त श्रावकोंने उन्हें आश्रयदान दिया था और उन्हींकी सत्प्रेरणासे कविने अपने ग्रन्थोंका प्रणयन किया था । ग्रन्थोंकी आद्यन्त प्रशस्तियोंसे उक्त श्रावकोंकी १२-१२ पीढ़ियों तकका विस्तृत विवरण उपलब्ध होता है, जिनसे ग्वालियरकी तत्कालीन सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, साहित्यिक आदि परिस्थितियों पर पर्याप्त प्रकाश पड़ता है ।
उक्त धनकुबेर श्रावकोंमेंसे संघवी कमलसिंह, खेल्हा ब्रह्मचारी, असपति साहू, संधाधिप नेमदास आदिके नाम अत्यन्त प्रमुख हैं । इन्होंने रइधूकी आज्ञासे जैनमूर्त्तियोंका निर्माण एवं उनके प्रतिष्ठासमारोहोंमें अपनी न्यायोपार्जित अटूट द्रव्यराशिका सदुपयोग किया। महाकवि रहधूने संघत्री कमलसिंहको गोपाचलका " तीर्थनिर्माता" कहा है, जो उपयुक्त ही है । कमलसिंहकी प्रेरणासे लिखे गये
धूकृत 'सम्मतगुणणिहाणकत्र की प्रशस्तिके अनुसार कमलसिंहने ग्वालियर- दुर्गमें एक विशाल आदिनाथ भगवानकी मूर्त्तिका निर्माण एवं प्रतिष्ठा कराई थी । अन्य मूर्त्ति एवं मन्दिर निर्माताओं तथा प्रतिष्ठाकर्त्ताओंके कार्यों में भी इनका सक्रिय सहयोग रहता था। एक बार कमलसिंहने अपनी आदिनाथ भगवानकी मूर्त्तिकी प्रतिष्ठा के लिये जब राजा डूंगरसिंहसे आज्ञा चाही तब डूंगरसिंहने उन्हें केवल अपनी स्वीकृति मात्र ही प्रदान न की बल्कि दो आदर्श राजाओं-सोरठके राजा वीसलदेव एवं जोगिनीपुरके राजा पेरोजसाहि—- द्वारा प्रजाजनोंमें श्रेष्ठ वस्तुपाल- तेजपाल एवं सारगसाहुको प्रदत्त धार्मिक कार्यों में हर प्रकारके साहाय्यका उल्लेख करते हुए कहा कि मैं भी अपने राज्य में उन्हीं राजाओंके आदर्शों का पालन करता हूँ । अतः आदिनाथकी प्रतिष्ठा के समय तुम " जो-जो माँगोगे वही वही दूँगा (जं जं मग्गहु तं तं देसमि) । तुम अपना धर्मकार्य निश्चिन्ततापूर्वक सम्पूर्ण करो। " इतना कहकर राजाने
रइधू - साहित्यके परिचय के लिये “भिक्षु स्मृति ग्रन्थ " – कलकत्ता (१९६१) में प्रकाशित “ सन्धिकालीन अपभ्रंशभाषा के महाकवि रघू " नामक मेरा निबन्ध द्रष्टव्य है ।
२ सम्मत्त० १/१५/४१
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