Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
View full book text
________________
७४ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव ग्रन्थ
से भिन्न है। संस्कृत रामायणसे इस भिन्न रामायणको रचनेका क्या उद्देश्य था ? इस दृष्टिसे देखे तो तीन मूलभूत कारण प्रत्यक्ष नजर आते हैं। एक तो यह कि रामकी जो प्रचलित लोककथा थी उसको ब्राह्मणोंने
कार हिन्दू रूप दिया उसी प्रकार जैनोंने अपने मतावलम्बियों के लिए उसे अपना धार्मिक रूप दिया। दूसरी विशेषता यह कि उसमें वानरों और राक्षसोंको पशुओंकी तरह चित्रित किया गया था जो परंपराके प्रतिकूल था क्योंकि वे मनुष्य जातियाँ ही थीं। तीसरा कारण यह कि रामकथा-संबंधी कुछ ऐसी सामग्री भी विमलसूरिको मिली जो वाल्मीकि-रामयणमें उपलब्ध नहीं थी या कुछ भिन्न थी, जैसे रामका स्वेच्छापूर्वक वनवास, सुवर्ण मृगकी अनुपस्थिति, सीताका भाई भामण्डल, हनुमान के अनेक
नुकी अनुपस्थिति इत्यादि। यह रचना गाथाबद्ध हैं तथा ११८ उद्देशोंमें विभक्त है। कहीं कहीं पर अलंकारों के प्रयोग तथा रसभावात्मक वर्णनोंके होते हुए भी इसकी शैली रामायण व महाभारत जैसी ही है।
संस्कृत भाषामें भी प्रथम जैन पुराण रामसंबंधी है जो रविषेणाचार्य(७३५ वि० सं०)का पद्मचरित है। इसमें १२३ पर्व हैं तथा कुछ वर्णनात्मक विस्तारके सिवाय यह विमलसूरिके पउमचरियकी प्रतिकृति मात्र है। इसी कथाका अनुसरण करनेवाला सकलकीर्ति के शिष्य जिनदास(सोलहवीं शती)का रामदेवपुराण है जो गद्यात्मक है। देवविजयगणिका पद्मपुराण १६५२ वि० सं० में रचा गया था। भट्टारक सोमसेन• के रामपुराण (सं० १६५६) पर गुणभद्रकी रामकथा(उत्तरपुराण)का भी प्रभाव है। अन्य रामपुराणकारोंमें भ० धमकीर्ति (सं० १६६९), चन्द्रसागर, चन्द्रकीर्ति आदि उल्लेखनीय हैं।
प्राकृत व संस्कृतकी तरह अपभ्रंश भाषामें भी प्रथम उपलब्ध जैन पुराण पउमचरिउ है जो स्वयंभूदेव(८९७-९७७ वि० सं०)की रचना है। यह पाँच काण्डों तथा नब्बे संधियों में विभक्त है। कथा रविषेणाचार्यकी कृति के अनुसार ही है। इसकी विशेषता यह है कि इसमें उत्कृष्ट संस्कृत काव्यशैलीका अनुसरण हुआ है। कवि र इधू(१५वीं १६ वीं शताब्दी)ने भी अपभ्रंशमें पद्मपुराणकी रचना की है।
कालकी दृष्टिसे रामायणके पश्चात् महाभारत संबंधी कथाकृतियोंकी गणना जैन पुराण साहित्यमें होती है। जैन साहित्यमें ये रचनाएँ हरिवंशपुराण या पाण्डवपुराणके नामसे विख्यात हैं। कुवलयमालामें जो उल्लेख है उससे अनुमान किया जाता है कि इस विषय पर भी प्रथम कृति प्राकृतमें ही रची गयी थी और उसके कर्ता भी विमलसूरि थे। इन पुराणों में २२वें तीर्थंकर नेमिनाथ, वासुदेव कृष्ण, बलदेव, जरासिन्धु तथा कौरव-पाण्डवों का वर्णन है।
उपलब्ध साहित्यमें जिनसेनकृत (८४० वि० सं०) संस्कृत हरिवंशपुराणका प्रथम नम्बर आता है। इसमें ६६ सर्ग हैं। यह रचना विमलसूरिकी संभावित कृति पर आधारित मानी जाती है। सकलकीर्ति(१४५०-१५१० वि० सं०)का हरिवंशपुराण ३९ सगों में विभक्त है। इसमें आधेसे अधिक सर्ग उनके शिष्य जिनदास द्वारा लिखे गये हैं। भ० श्रीभूषणका हरिवंशपुराण सं० १६७ की रचना है।
तेरहवीं शताब्दीमें रचा गया देवप्रभसूरिका पाण्डवचरित्र १८ समेिं विभक्त है। शुभचन्द्रका (१६०८ वि० सं०) पाण्डवपुराण जैन महाभारत भी कहलाता है। राजविजयसूरिके शिष्य देवविजय गणी(१६६०वि० सं०)ने देवप्रभसूरिके पाण्डवचरित्रका गद्यमें रूपान्तर कर अपनी कृति बनायी थी। अमरचन्द्र(१३ वीं शताब्दी)की रचना बालभारत भी उल्लेखनीय है।
हरिवंश पुराण के अन्य कर्ताओंमें व्र० जिनदास (१६ वीं शती), जयसागर, कवि रामचन्द्र (सं० १५६०से पूर्व) और भ० धर्मकीर्ति (सं० १६७१) तथा पाण्डव चरित्र संबंधी जयानन्द, विजयगणी, शुभवर्धनगणी और पाण्डव पुराणके रयिचताओंमें भ० शुभचन्द्र (सं० १६१८), श्रीभूषण (सं० १६५७) और भ० वादिचन्द्र (१७वीं शती)के नाम उल्लेखनीय हैं।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org