Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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जैन पुराण साहित्य : ७९
४७०९ ग्रन्थान प्रमाण है। पद्मसुन्दरका (सं०१६१५)पार्श्वनाथकाव्य ७ सर्गों में निबद्ध मिलता है। हेमविजयने सं० १६३२में ३१६० ग्रन्थान प्रमाण चरित रचा। उदयवीरगणि(सं० १६५४)की रचना गद्यात्मक है जो आठ अध्यायोंमें विभक्त है। सकल कीर्तिका पार्श्वनाथपुराण १५वीं शतीका तथा वादिचन्द्रका १७ वीं शतीका है। चन्द्रकीर्तिने अपना पुराण सं० १६५४में रचा जो करीब ३००० ग्रंथाग्र प्रमाण है तथा इसमें कुल १५ सर्ग हैं। अपभ्रंशमें प्रथम रचना पनकीर्तिकी सं० ९९२की १८ संधि-प्रमाण मिलती है। इसके पश्चात् दूसरी अपभ्रंश रचना श्रीधर की सं० ११८९की मिलती है। असवालका पार्श्वनाथपुराण १३ संधि प्रमाण है जो १५वीं शतीके आसपासकी रचना मानी जाती है। रइधूका भी पार्श्व पर एक पुराण उपलब्ध है।
चरम तीर्थकर महावीरके जीवन पर प्राकृत काव्य रचयिताओंमें सर्वप्रथम नाम गुणचन्द्रगणिका (सं० ११३९) आता है जिनकी रचना ८ स!में निबद्ध है। ये सुमतिवाचकके शिष्य थे। द्वितीय काव्यकार देवेन्द्रगणि उर्फ नेमिचन्द्रसूरि (वि० सं० ११४१) है जिनका ग्रंथ ३००० ग्रन्थान प्रमाण है। अन्य चरितकारोंमें मानदेवसूरिके शिष्य देवप्रभसूरि तथा जिनवल्लभसूरि के नाम आते हैं। संस्कृत काव्योंमें प्रथम नंबर असग(११ वींशती)के सन्मतिचरित्र अथवा वर्धमानचरित्रका है जो १८ सोमें विभक्त है। सकलकीर्तिका वर्धमानपुराण (सं० १५१८) १९ सगोंमें पाया जाता है। यह रचना ३०३५ ग्रन्थान प्रमाण है। महावीरपुराणकारोंमें पचनन्दि, केशव, वाणीवल्लभ इत्यादिके नाम भी उल्लेखनीय हैं। अपभ्रंशमें रइधका सम्मइणाहचरिउ १० संधियोंमें निबद्ध है। जयमित्रका ११ संधिवाला वडमाणकव्वु मिलता है। नरसेनकी वडमाणकहा भी मिलती है। ये सभी रचनाएँ १६वीं शतीके आसपासकी ठहरती हैं। दो अपभ्रंश कृतियाँ और पायी जाती हैं एक अनाम तथा द्वितीय जिनेश्वरसूरिके एक शिष्यकी। पहली २४ तथा दूसरी १०८ कडक्क प्रमाण है।
इन अतीतके तीर्थंकरोंके अलावा आगामी जिन अममके जीवन पर भी एक रचना सं० १२५२की रत्नसूरिकी उपलब्ध है।
इन जिनचरितोंमें तत्तत्कालीन जो चक्रवर्ती, बलदेव वासुदेव व प्रतिवासुदेव हुए उनका भी वर्णन प्रायः समाविष्ट है, अतः उनके जीवन पर पृथक् पृथक् रचनाएँ बहुत कम मात्रामें उपलब्ध हैं। जो कुछ भी स्वतंत्र रचनाएँ मिलती है उनके नाम इस प्रकार हैं
सगरचक्रिचरित १२वीं शतीसे पूर्वकी एक अनाम प्राकृत रचना है। जिनपालकृत सनत्कुमार चरित्र २२०३ ग्रन्थान प्रमाण एक संस्कृत रचना है तथा चन्द्रसूरिकी ८१२७ ग्रन्थान प्रमाण सं. १२१४ की रचना है। चक्रवर्ती सुभौमके जीवन पर रत्नचन्द्र (सं० १६८३) तथा पं० जगन्नाथकी संस्कृत कृतियाँ उपलब्ध हैं। हरिषेणचरित्र प्राकृत व अपभ्रंशमें मिलते हैं, परंतु अनाम। जयचक्रिपुराण ब्र० कामराजकी सं० १५६०की १३ सर्ग वाली एक संस्कृत रचना है। प्राकृतमें एक अनाम जयचक्रिचरित भी उपलब्ध है।
त्रिषष्टि शलाका पुरुषों के अतिरिक्त धार्मिक वीरपुरुष, श्रमण-श्रमणी, श्रावक-श्राविका और कुछ काल्पनिक पात्रों के जीवन संबंधी जो रचनाएँ की गयीं उनको भी प्रायः चरितकी संज्ञा ही दी गयी है। फिर भी कुछ ऐसी भी कृतियाँ उपलब्ध हैं जिनको पुराण भी कहा गया है, जैसे अगडदत्त-पुराण, कुबेरपुराण, श्रेणिक-पुराण, गजसिंह-पुराण इत्यादि। ऐसी रचनाओंका विवरण यहां पर विवक्षित नहीं होने के कारण उनका यहां पर समावेश नहीं किया गया है।
उपर्युक्त विवरणसे स्पष्ट है कि जैन पुराण साहित्य विपुल मात्रामें उपलब्ध है। अभी भी ग्रन्थभंडारोंमें बहुत-सी कृतियाँ पड़ी हुयी हैं जिनका प्रकाशन नहीं हुआ है। साहित्यप्रेमियों तथा जैन समाज
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