Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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७२ : श्री महावीर जैन विद्यालय सुवर्णमहोत्सव अन्य
जो प्राचीन कालके इतिहाससे सम्बन्ध रखनेवाला हो, जिसमें तीर्थकर, चक्रवर्ती इत्यादि महापुरुषोंका चरित्र-चित्रण हो तथा जो धर्म, अर्थ और कामके फलको दिखानेवाला हो उसे महाकाव्य कहते हैं। जिनसेनाचार्यने अपने महापुराणको महाकाव्य भी माना है। कहनेका तात्पर्य यह कि महापुराण पुराणसे बृहत्काय होता है और जैन पुराणोंमें काव्यात्मक शैलीका समावेश भी हो गया है।
___ ऊपर कहा जा चुका है कि पुराणमें सत्पुरुषके चरित की कथा-वस्तुका समावेश होता है। इसी चरितात्मक वस्तुके कारण ऐसी रचनाओंको चरित भी कहा गया है। श्वेताम्बरोंकी प्रायः जितनी भी रचनाएँ तीर्थंकरों के जीवन संबंधी मिलती हैं उन्हें चरित ही कहा गया है, परन्तु दिगम्बर लेखकोंने उन्हें पुराण व चरित दोनों संज्ञाएँ दी हैं। इससे यह स्पष्ट है कि शलाका पुरुषों के जीवन सम्बन्धी जो जो कृतियाँ रची गयीं उन्हें चाहे पुराण कहें या चरित कहें, इससे कोई भेद उपस्थित नहीं होता। कहने का तात्पर्य यह कि चरित और पुराण एकार्थवाची ही है, यदि उनमें त्रेसठ महापुरुषोंमेंसे किसी एकका या अनेकका चरित वर्णित हो। आगे चलकर हम देखते हैं कि पुराण और चरित इस परिभाषामें अनुबद्ध नहीं रहें। शलाका पुरुषों के अतिरिक्त अनेक महापुरुषोंके काल्पनिक चरितोंको भी पुराण या चरित कहा गया है। विशेषतः चरित बहुत ही विस्तृत अर्थमें प्रयुक्त हुआ हैं। चरितका अभिप्राय रहा है जीवनी और वह जीवनी चाहे शलाका पुरुषकी हो, कोई धार्मिक अथवा वीरपुरुषकी हो या किसी काल्पनिक पुरुषकी ही क्यों न हो, उन सबको चरितकी संज्ञा दी गयी है।
पुराण और महापुराण नामक जो जो रचनाएँ रची गयीं उन सबका आधार क्या रहा है? जिनसेनाचार्यने तो महापुराणकी परिभाषामें यह बतलाया है कि महापुरुषों(तीर्थकरा दि)ने इसका उपदेश दिया है इस लिएइसे महापुराण कहते हैं। कहनेका तात्पर्य यह कि इन पुराणोंकी कथाएँ तीर्थकरोंके मुखसे ही सुनी गयी थी और ये ही परंपरासे चली आ रही हैं। ऊपर हमने बतलाया है कि दिगंबरोंका प्रथमानुयोग ही श्वेताम्बरोंका धर्मकंथानुयोग है। प्रथमानुयोग बारहवें अंग दृष्टिवादका एक विभाग भी माना गया है। उसमें तीर्थकर, चक्रवर्ती और अन्य महापुरुषों के वर्णन उपलब्ध थे। जैन कथासाहित्यके पुराणोंकी कथावस्तुका यह भी एक आदिस्रोत माना जाता है, किन्तु दृष्टिवादके लुप्त हो जाने के कारण प्रथमानुयोग अब उपलब्ध नहीं है। परंपरासे जो कुछ भी सुरक्षित रह सका वह आगम ग्रंथों तथा अन्य ग्रंथोंमें समाविष्ट हो गया ऐसी मान्यता है। अतः प्रथमानुयोगके पश्चात् जिन जिन ग्रंथोंकी कथा-सामग्री के आधार पर आगे पुराण ग्रन्थ रचे गये उनमें समवायांग, ज्ञाताधर्मकथा, कल्पसूत्र, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति, त्रिलोकप्रज्ञप्ति तथा आवश्यक नियुक्ति, चूर्णि, विशेषावश्यक भाष्य और वसुदेवहिण्डी उल्लेखनीय हैं।
जैसा कि भारतीय साहित्यके साथ होता आया है वैसे जैन साहित्य के भी कुछ प्राचीन ग्रन्थ अब तक भी उपलब्ध नहीं हो सके हैं। अन्य ग्रन्थोंमें उल्लेख मात्रसे ही उनका पता चलता है। इस प्रकारके पुराणोंमें विमलसूरिका हरिवंसचरिय, कवि परमेष्ठिका वागर्थसंगह-पुराण तथा चतुर्मुखके पउमचरिउ और हरिवंसपुराणु उल्लेखनीय हैं। उपलब्ध पुराण-साहित्य पर दृष्टिपात करें तो मालूम होगा कि ये रचनाएँ विक्रमकी छठी शताब्दीसे लगाकर १८वीं शताब्दी तक पनपती रही हैं। जिस प्रकार जैनोंका पुरानामें पुराना साहित्य प्राकृत भाषामें उपलब्ध है उस प्रकार पुराण साहित्य भी। अपने धर्म-प्रचारमें साधारण जनको प्रभावित करने के लिए उन लोगोंकी बोलचालकी जो भाषा थी उसे ही अपने साहित्यका माध्यम बनानेमें जैन लोग अग्रणी रहे हैं। इसलिए समय समय पर बदलती हुयी भाषाओंमें पुराण साहित्यका सृजन हुआ है। प्राकृत के बाद जब संस्कृतका अधिक प्रभाव बढ़ा तो उस भाषामें भी पुराणों की रचना करने में जैन लोग पीछे नहीं रहें। उसके पश्चातू जब अपभ्रंश भाषाओंने जोर पकडा तब अपभ्रंश रचनाएँ भी होने लगीं। इस प्रकार हम देखेंगे कि प्राकृत (महाराष्ट्री) पुराणोंका रचनाकाल छठी शताब्दीसे पन्द्रहवीं तक, संस्कृत
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