Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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दिगम्बरपरंपरामें आचार्य सिद्धसेन : ४१
पर्याय दोनों के ग्रहण के आधार पर एक ऐसा तथ्य फलित किया जो अनेकान्तदर्शनके इतिहास में उल्लेखनीय है। उन्होंने लिखा है
गुणवद्व्यमित्युक्तं सहानेकान्तसिद्धये।
तथा पर्यायवद्रव्यं क्रमानेकान्तवित्तये॥२॥-त. श्लो० वा० पृ० ४३८ सहानेकान्तकी सिद्धि के लिये 'गुणवद् द्रव्यम्' कहा है। तथा क्रमानेकान्तके बोधके लिये 'पर्यायवद् द्रव्यम्' कहा है।
अर्थात् अनेकान्त के दो प्रकार हैं : सहानेकान्त और क्रमानेकान्त। परस्परमें विरोधी प्रतीत होनेवाले धर्मोका एक वस्तुमें स्वीकार अनेकान्त है। उनमें से कुछ धर्म तो ऐसे होते हैं जो वस्तुमें साथ साथ रह सकते है जैसे अस्तित्व, नास्तित्व, नित्यत्व, अनित्यत्व; किन्तु कुछ धर्म ऐसे होते हैं जो कालक्रमसे एक वस्तुमें रहते हैं, जैसे सर्वज्ञता और असर्वज्ञता, मुक्तत्व और संसारित्व । गुण सहभावी होते हैं और पर्याय कमभावी होती हैं अतः एकसे सहानेकान्त प्रतिफलित होता है तो दूसरेसे क्रमानेकान्त ।
इस तरह विद्यानन्दने सिद्धसेनके मतोंको अमान्य या प्रकारान्तरसे मान्य करते हुए भी तत्त्वार्थश्लोकवार्तिकके प्रारम्भमें ही हेतुवाद और आगमवादकी चर्चाके प्रसंगसे समन्तभद्रके आप्तमीमांसाके 'वक्तर्यनाते' इत्यादि कारिकाके पश्चात् ही प्रमाणरूपसे सिद्धसेन के सन्मतिसे भी 'जो हेदुवादपरकम्मि' आदि गाथा उद्धृत करके सिद्धसेनके प्रति भी अपना आदरभाव व्यक्त किया है, यह स्पष्ट है।
टीकाकार सुमतिदेव
विद्यानन्दसे पहले और संभवतया अकलकदेवसे भी पूर्व दिगम्बर परम्परामें सुमतिदेव नामके आचार्य हो गये हैं। श्रवणबेलगोलाकी मल्लिषेणप्रशस्तिमें कुन्दकुन्द, सिंहनन्दि, वक्रग्रीव, वज्रनन्दि और पात्रकेसरी के बाद सुमतिदेव की स्तुति की गई है और उनके बाद कुमारसेन, वर्द्धदेव और अकलंकदेवकी । इससे सुमतिदेव प्राचीन आचार्य मालूम होते हैं।
पार्श्वनाथचरित(वि० सं० १०८२)के कर्ता वादिराजने प्राचीन ग्रन्थकारोंका स्मरण करते हुए लिखा है--
नमः सन्मतये तस्मै भवकूपनिपातिनाम् ।
सन्मतिर्विवृता येन सुखधामप्रवेशिनी ॥ २२॥ अर्थात् उस सन्मतिको नमस्कार हो जिनने भवकूप में पड़े हुए लोगोंके लिये सुखधाममें पहुँचानेवाली सन्मतिको विवृत किया अर्थात् सन्मतिकी वृत्ति या टीका रची। ___यह सन्मति सिद्धसेनकृत ही होना चाहिये। 'नमः सन्मतये' में 'सन्मति' नाम सुमति के लिये ही आया है। दोनोंका शब्दार्थ एक ही है। किन्तु सन्मति के साथ सन्मतिका शब्दालंकार होनेसे काव्यसाहित्य में सुमति के स्थानमें सन्मतिका प्रयोग किया गया है।
जैन ग्रन्थों में तो सुमतिदेवका कोई उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु बौद्ध दार्शनिक शान्तरक्षितने अपने तत्त्वसंग्रहके स्याद्वादपरीक्षा और बहिरर्थपरीक्षा नामक प्रकरणोंमें सुमतिनामक दिगम्बराचार्यकी आलोचना की है। यह सुमति सन्मति टीकाके कर्ता ही होने चाहिये। संभवतया उसी में चर्चित मतकी समीक्षा शान्तरक्षितने की है। वैसे मलिषेणप्रशस्तिमें उनके सुमतिसप्तक नामक ग्रन्थका भी उल्लेख है। यथा--
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