Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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खरतर गच्छके आचार्यों संबन्धी कतिपय अज्ञात ऐ० रचनाएँ : २९
श्रीमाल सेठ रयपति के संघ सहित शत्रुजय आदि तीर्थोकी यात्राकी। फिर ओसवाल वंश शुक्ति मौक्तिक साहु वीरदेवके साथ भी शुजयादिकी वंदना की। गूर्जर, मारवाड़, सिंध, सवालक्षादि देशोंमें विचरकर दीक्षा, मालारोपण, श्रावक व्रतारोपण आदि द्वारा स्थान स्थानमें धर्मकी प्रभावना की। वे सर्व विद्याओंके ज्ञाता थे, स्याद्वाद, न्यायशास्त्रादि दो वार शिष्योंका भणाये। चैत्यवन्दन कुळक वृत्ति, आदि सरस कथानक परोपकारार्थ रचे। विद्या विनोद, कविता विनोद और भाषा विनोद सतत चालू रहता था। गुरुदेवके एक एक उपकारका वर्णन हजारों जिह्वाओं द्वारा भी नहीं किया जा सकता। अन्तमें गुरुदेव श्रीजिनकुशलसूरिजीने अपना आयुशेष ज्ञातकर श्रीतरुणप्रभसूरिको अपने पट्ट पर पद्ममूर्ति नामक शिष्यको अभिषिक्त करनेका आदेश देते हुए उनका नाम जिनपमसूरि रखा जाना निर्दिष्ट किया। आपने अनशन आराधनापूर्वक नवकार मंत्रका ध्यान करते हुए मिथ्यादुष्कृत देते हुए संलेखना सहित सं० १३८९ मिती फाल्गुन वदि ६को देरावरमें स्वर्ग प्राप्त हुए। वहां नंदीश्वर, महाविदेह आदि में तीर्थङ्करों-जिनवंदनादि सत्कार्यों में अपना काल निर्गमन करते हैं। इस प्रकार युगप्रवर श्रीजिनकुशलसूरिकी तरुणप्रभाचार्यने भावपूर्वक स्तुति की। श्रीजिनलब्धिसूरि-चहुत्तरी
प्रस्तुत प्राकृत भाषाके ७४ गाथा वाले सुन्दर काव्यका निर्माण श्रीतरुणप्रभाचार्यने ही किया है। इन सब काव्योंमें इसका महत्त्व सर्वाधिक है क्योंकि आचार्य श्रीजिनलब्धिसूरिजीके सम्बन्धमें अद्यावधि कोई प्रामाणिक सामग्री प्राप्त नहीं थी। प्राचीन प्रमाणोंके अभावमें पिछली पट्टावलियोंमें बहुत ही संक्षिप्त
और अस्तव्यस्त जीवनी संकलित है। इस प्रामाणिक चहुत्तरीका सार यहाँ दिया जा रहा है जो खरतर गच्छ इतिहासकी शृंखलाको जोड़ने वाली सिद्ध होगी।
आचार्य श्रीजिनचंद्रसूरिको नमस्कार करके उन्हीं के शिष्य श्रीजिनलब्धिसूरिकी स्तवना श्रीतरुणप्रभाचार्यजी प्रारंभ करते हैं। जहां हाट और घरों पर कपाट नहीं बंद किये जाते ऐसे चोरीचकारी रहित माड देशमें जेसलमेर महादुर्ग है। वहां यादव वंशी राजा जयतसिंह राज्य करता है। दर्शन करनेसे शास्वत जिन चैत्योंका ख्याल कराने वाला पार्श्वनाथ जिनालय बिबरत्न विराजित और स्वर्ण कलशयुक्त है। ओसवाल वंशकी नवलखा शाखामें धणसीह श्रावक हुए जिनकी भार्यारत्न खेताहीकी कृक्षिसे सं० १३६० मार्गशिर शुका १२के दिन साचौरमें लक्खणसी'हका जन्म हुआ। अणहिलपुरमें विचरते हुए श्रीजिनचन्द्रसूरिका उपदेशामृत पान कर सं० १३७० मिती माघ शुक्ला ११को दीक्षित हुए। आपका दीक्षा नाम लब्धिनिधान रखा गया। श्रीमुनिचंद्र गणिके पास स्वाध्याय, आलापक, पंजिका, काव्यादि तथा श्रीराजेन्द्रचन्द्राचार्य के निकट नाटक, अलंकार, व्याकरण, धर्म प्रकरण, प्रमाणशास्त्रादिका अध्ययन कर मूळागमोंका अध्ययन किया। दमयन्ती कथा, काव्यकुसुम माला, वासवदत्ता, कम्मपयड़ी आदि शास्त्र पढ़े। श्रीजिनकुशलसूरिजीके पास महातर्क खण्डनादि तथा हमारे (तरुणप्रभाचार्य) साथ विषम ग्रंथोंका अभ्यास किया। इनके क्षांति, दान्त, आदि गुणोंकी कान्तिको देख कर वचन कलादिसे मुग्ध हो कर सब लोग सिर धुनते हुए आश्चर्य प्रगट करते थे।
सं० १३८८ मिती मार्गशीर्ष शुक्ला ११के दिन देरावरमें श्रीजिनकुशलसूरिजी महाराजने हमें (तरुणप्रभ) सूरिपद और इन्हें (लब्धिनिधानजीको) उपाध्याय पदसे अलंकृत किया। प्रथम
१ देखिये युगप्रधानाचार्य गुर्वावली। सं० १३८९ के देवराजपुर (देरावर) चातुर्मास में श्रीजिनकुशलसूरिजी ने
लब्धिनिधानोपाध्याय को स्याद्वादरत्नाकर, महातर्क रत्नाकरादि ग्रंथों का परिशीलन करवाया था। दे. हमारे लिखित दादाजिनकुशलसूरि ।
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