Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
View full book text
________________
भारतीय दर्शनमें आत्मवाद
साध्वी निर्मलाश्री
मानव स्वभाव चिन्तनशील है। वह कुछ न कुछ चिन्तन करता रहता है, इसलिये दर्शनका क्षेत्र 'सत्यका
अन्वेषण' होना चाहिये। भगवान् महावीरके शब्दोंमें 'सत्य ही लोकमें सारभूत है।'
दर्शन शब्दका प्रयोग सबसे पहले 'आत्मासे सम्बन्ध रखनेवाला विचार के अर्थमें हुआ है। दर्शन अर्थात् वह तत्त्वज्ञान जो आत्मा, कर्म, परलोक, मोक्ष आदिका विचार करें।
'तात्त्विक विचार-पद्धति' या 'तत्त्वज्ञान'को भी दर्शन कहा जाता है। जिस पद्धति या वस्तुको लेकर तर्कपूर्ण विचार किया जाय उसीका वह (विचार) दर्शन बन जाता है-जैसे आत्मदर्शन आदि। सबसे प्रमुख तत्त्व आत्मा है-'जो आत्माको जान लेता है वह सबको जान लेता है।
__ अनेक व्यक्ति यह नहीं जानते कि 'मैं कौन हूँ?' 'कहाँसे आया हूँ?' 'कहाँ जाऊँगा?' 'मेरा पुनर्जन्म होगा कि नहीं ?", दर्शनका जन्म इस तरहकी जिज्ञासासे होता है। इस विचारपद्धतिकी नींव आत्मा है। यदि आत्मा है तो वह विचार है, यदि आत्मा नहीं है तो वह भी नहीं। अतः आत्माके विषयमें दार्शनिकोंका मन्तव्य जानना आवश्यक हो जाता है।
चार्वाक दर्शनके अनुसार-प्रत्यक्ष ही एकमात्र प्रमाण है। अतः स्वर्ग, नरक, आत्मा, परलोक आदि नहीं है। यह लोक इतना ही है जितना दृष्टिगोचर होता है। जड़ जगत् पृथिवी आदि चार प्रकारके भौतिक तत्वों से बना हुआ है। जैसे पान, चूना और कत्थेमें अलग अलग ललाई दीख नहीं पडती, पर इनके संयोग होनेसे ललाईकी उत्पत्ति हो जाती है और मादक द्रव्योंके संयोगसे मदिरामें मादकताका
१ सचं लोगम्मि सारभूयं-प्रश्नव्या० २ संवरद्वार । सच्चम्मि थिई कुव्वहा-आचा० १। ३।३।१११ । २ न्या. सू०-१-१-१, वै० द. १११। ३ आत्मनि विज्ञाते सर्वमिदं विशातं भवति - बृह० उप० २-४-६ । जे एगं जाणइ से सम्बं जाणइ-आचा० ४ इह मेगेसिं नो सन्ना होइ, कम्हाओ दिसाओ वा आगो अहमंसि ? अस्थि मे आया उबवाइए वा नत्थि ? केवा
अहमंसि ? के वा इओ चुओ इह पेच्चा भविस्सामि ।-आचा० १११ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jeinelibrary.org