Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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भारतीय दर्शनमें आत्मवाद : ७
आत्मा 'स्व-देह परिणाम' है कारण उसका संकोच और विस्तार कार्मणशरीर सापेक्ष होता है। कर्मयुक्त दशामें जीव शरीरकी मर्यादामें बन्धे हुए होते हैं, इसलिये उनका परिणाम स्वतंत्र नहीं होता। जो आत्मा हाथी के शरीरमें रहती है वह कुंथुके शरीरमें भी रह सकती है क्योंकि उसमें संकोच-विस्तारकी शक्ति है। ___ आत्माका 'स्व देह परिणामी' विशेषण होने के कारण न्याय-वैशेषिक, अद्वैतवेदान्ती और सांख्य विभिन्न हो जाते हैं। कारण, वे आत्माको सर्वव्यापक मानते हैं।
__आत्माका एक विशेषण है 'प्रतिक्षेत्रे विभिन्न' अर्थात् प्रत्येक शरीरमें स्वतन्त्र है। यह जैनदर्शनकी मान्यता सांख्य, नैयायिक और विशिष्टाद्वैतवादीके अनुकूल है, तो भी अद्वैतवादी भिन्न हो जाते हैं। कारण, उनके मतानुसार स्वभावतः जीव एक है, परन्तु देहादि उपाधियों के कारण नाना प्रतीत होता है।
जैनमतानसार जीव 'पौवालिक अदृष्टवान्' अर्थात् कर्मसंयुक्त है। जैसे सोना और मिट्टीका संयोग अनादि है, वैसे ही जीव और कर्मका संयोग भी अनादि है। जैसे खाया हुआ भोजन अपने आप सप्त धातुके रूपमें परिणत होता है, वैसे ही जीव द्वारा ग्रहण किये हुए कर्मयोग्य पुद्गल अपने आप कर्मरूपमें परिणत हो जाते हैं।
आत्माका 'पौद्गलिक अदृष्टवान्' विशेषण होनेके कारण न्याय-वैशेषिक और वेदान्ती भिन्न हो जाते हैं। कारण, चार्वाक अदृष्ट अर्थात् कर्मसत्ता को मानते ही नहीं। न्याय वैशेषिक अदृष्ट(धर्माधर्म)को आत्माका विशेषगुण मानते हैं और वेदान्ती उसे मायारूप मानकर उसकी सत्ताको ही नही स्वीकारते।
संक्षेपमें, जैनदर्शन के अनुसार आत्मा-चैतन्यस्वरूप, विभिन्न अवस्थाओंमें परिणत होनेपर भी नित्य (कटस्थ नित्य नहीं), शुभाशुभ कर्मोका कर्ता तथा उसके फलका भोक्ता, स्व-देह-परिणाम, न अणु, न विभु किन्तु मध्यम परिमाणका है।
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