Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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जैन धर्मका प्रसार : ११
समय नेमिका ऐतिहासिक काल माना जाना चाहिये । वैदिक वाङ्मय में वेदसे पुराण तक के साहित्य में नेमिके उल्लेख देखनेको मिलते हैं' ।
तेईसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथका जन्म बनारस में हुआ था। उन्होंने सम्मेतशिखर पर दक्षिण बिहार में मुक्ति प्राप्त की थी । उनका निर्वाण ई० पू० ७७७ में हुआ था। उनका धर्म चातुर्यामके नाम से प्रसिद्ध था । पालि ग्रन्थों में इसके उल्लेख हैं। गौतम बुद्धके चाचा बप्प शाक्य निर्ग्रथ श्रावकर थे । अतः वे पार्श्वनाथ परंपरा के ही उपासक थे। भगवान महावीर के पिता भी इसी परंपरा के अनुयायी थे । इस प्रकार बौद्ध धर्म स्थापनाके पूर्व निर्ग्रन्थ सम्प्रदाय काफी सुदृढ हो चुका था और विद्वान् लोग सर्वसम्मति से पार्श्वनाथको ऐतिहासिक पुरुष मानते हैं। उनके कालमें उत्तर प्रदेश, बिहार इत्यादिमें जैन धर्म सुप्रचलित था यह कहने की आवश्यकता नहीं ।
महावीर काल
चौबीसवें और अन्तिम तीर्थंकर महावीर हुए, जिनका कौटुंबिक संबंध मिथिला के लिच्छवि गणतंत्र और वैशाली से था । उन्होंने पूर्वपरंपराको एक अद्भुत शक्ति प्रदान की थी। वे ज्ञातृवंशके थे और वैशाली उनका जन्मस्थान था । उनका निर्वाण पावापुरी में ई० पूर्व ५२७ में हुआ था। उन्होंने पार्श्वनाथ के चतुर्यामोंको पाँच व्रतों में बदला। उन्होंने ई० पू० छठीं शती के द्वितीय और तृतीय पादमें स्थान स्थान पर भ्रमण करके अपने उपदेश दिये थे । उनके द्वारा जिन पूर्व और पश्चिमी प्रदेशोंमें जैन धर्मका प्रचार हुआ। उनके नाम इस प्रकार हैं : पूर्वमें अंग, बंग, मगध, विदेह तथा कलिंग; पश्चिममें कासी, कोसल और वत्स देश । मगध राजा श्रेणिक बिम्बिसार तथा कुणिक अजातशत्रुका जैन धर्मके साथ जो संबंध रहा वह सुविदित है । वैशालीके गण - प्रमुख चेटक महावीर के मातृपक्ष से संबंधित थे। गणराज्य में उनका स्थान और प्रभाव सर्वोपरि था । उनका रिश्ता सिन्धु- सौवीरके राजा उदयन और उज्जैनके राजा चंडप्रद्योत तथा कौशाम्बी के राजा शतानीक के साथ था । इस प्रभाव के कारण उन प्रदेशोंमें जैन धर्म के प्रचार में काफी प्रेरणा मिली होगी । महावीर के निर्वाणके अवसर पर लिच्छवि और मल्लकी राजाओंका वहां पर उपस्थित होना उनके जैन धर्मानुयायी होने का प्रमाण है ।
महावीरके पश्चात्
महावीरके पश्चात् भी मगध के सम्राटों के साथ जैन धर्मका अच्छा संबंध रहा है। अजातशत्रुने वैशाली गणराज्यको छिन्नभिन्न कर दिया। कासी - कोसलका मगध में समावेश हो गया। ऐसे विशाल मगध साम्राज्य के नन्द राजाओं के जैन होनेका वर्णन आता है। इसकी पुष्टि खारवेलके शिलालेख से भी होती है। आदि मौर्य सम्राट् चन्द्रगुप्त भद्रबाहु के शिष्य बने थे और उन्होंने समाधिमरण किया था ऐसी भी एक परंपरा है । अशोक भी आरम्भमें जैन थे और बादमें बौद्ध हो गये। संप्रति एक प्रभावशाली जैन सम्राट थे । उनके धर्मप्रचार के कारण उन्हें जैन अशोक कहा जाता है ।
मौर्यकाल के पश्चात् आगे के वर्षोंमें भारत में जैन धर्मका प्रसार किस प्रकार हुआ उसका सप्रमाण चित्र जैनों की विभिन्न वाचनाओंसे सामने आता है। ई० पू० चौथी शती में प्रथम जैन वाचना पाटलिपुत्र में
१ भारतीय संस्कृति में जैन धर्मका योगदान पृ. १९ ।
Vide-Jainism the Oldest Living Religion by J. P. Jain. p. 22.
२ अंगुत्तर निकाय, चतुक्कनिपात ( वग्ग. ५) ।
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