Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
View full book text
________________
जैन धर्मका प्रसार : ९
पुराणों और महाभारतमें ऐसा उल्लेख है कि सृष्टि निर्माण करते समय ब्रह्माने प्रथम सनक आदि पुत्रोंको उत्पन्न किया था। वे वनमें चले गये और निवृत्तिमार्गी हो गये। तदुपरांत ब्रह्माने अन्य पुत्रोंको उत्पन्न किया, जिन्होंने प्रवृत्तिप्रधान रहकर प्रजा की सन्ततिको आगे बढ़ाया। कहनेका तात्पर्य यह कि निवृत्तिप्रधान परंपरा अत्यंत प्राचीन है।
प्राचीन काल
अपने प्राचीन इतिहास संबंधी जैन आगमों और पुराणोंके वर्णनानुसार जम्बूद्वीप के दक्षिणमें स्थित भारत देशमें, जिसके उत्तरमें हिमवान् पर्वत है, पहले भोगभूमिकी व्यवस्था थी। कालव्यतिक्रमसे उसमें परिवर्तन शुरू हुआ और आधुनिक सभ्यताका प्रारंभ । उस समय चौदह कुलकर हुए, जिन्होंने क्रमशः कानूनकी व्यवस्था की और समाजका विकास किया। उन चौदह कुलकरोंमें अन्तिम कुलकर नाभि थे। उनकी पत्नी मरुदेवी थी और उनसे प्रथम तीर्थंकर ऋषभका जन्म हुआ, जिन्होंने सर्वप्रथम कृषि, शिल्प, वाणिज्य आदि छह साधनोंकी व्यवस्था की तथा धर्मका उपदेश दिया। ये ही जैनों के आदि धर्मोपदेशक माने जाते हैं। इनका ज्येष्ठ पुत्र भरत था जो प्रथम चक्रवर्ती हुआ। इस तरह चौदह कुलकरों के पश्चात् त्रेसठ शलाका पुरुष हुए जिनमें २४ तीर्थकर, १२ चक्रवर्ती, ९ बलदेव, ९ वासुदेव तथा ९ प्रति वासुदेव हैं।
प्रथम चक्रवर्ती भरतसे ही इस देशका नाम भारतवर्ष हुआ ऐसा जैन पुराणों व आगमोंमें कहा गया है। हिन्दू पुराणों के अनुसार भी इन्हीं नाभिके पौत्र तथा ऋषभ के पुत्र चक्रवर्ती भरतके नामसे अजनाभ खण्डका नाम भरतखण्ड हुआ। इस प्रकार जैन अनुश्रुतिका हिंदू(ब्राहाण) पुराणों के द्वारा समर्थन होता है और उसकी ऐतिहासिकता सूचित होती है। .
ऋषभदेवका जन्म अयोध्यामें हुआ था। दीक्षाके बाद वे कठोर तपस्वी बनें। वे नग्न रहते और सिरपर जटाएँ धारण करते थे। जैन कलामें घोर तपस्वी के रूपमें तथा सिरपर जटाल केशोंके साथ उनका अंकन हुआ है। उनके जीवन संबंधी वर्णन अजैन साहित्यमें भी प्राप्त हैं। हिंदू पुराणों मेंरे (भागवत इत्यादि) उनके वंश, माता-पिता और तपश्चर्याका जो वर्णन है वह जैन वर्णनसे काफी साम्य रखता है। वे स्वयंभू मनुसे पांचवीं पीढ़ी में हुए थे। (इस वर्णनके अनुसार अन्य अवतारों जैसे राम, कृष्ण इत्यादिसे इनका समय प्राचीन ठहरता है तथा महाभारत के अनुसार भी प्रजापति के प्रथम पुत्र निवृत्तिमार्गी हुए और तत्पश्चात् प्रवृत्ति मार्गका प्रचलन हआ।) चे कठोर तपस्वी थे और नम रहते थे। उन्होंने दक्षिण देशमें भी भ्रमण किया था। वे वातरशना श्रमण ऋषियों के धर्मको प्रकट करने के लिए अवतरित हुए थे। उन्हें विष्णु और शिवदोनोंका अवतार माना गया है। वातरशना श्रमण मुनियोंकी इस परंपरा के दर्शन भारत के प्राचीनतम साहित्य ऋग्वेदमें भी होते हैं। इस वेदके दसवें मंडलमें वातरशना मुनियोंका वर्णन उपलब्ध है और उसके साथ उनके प्रधान मुनि केशीकी भी स्तुति की गयी है। केशीका तात्पर्य केशधारी व्यक्तिसे है और जैन परंपरामें सिर्फ ऋषभकी मूर्ति जाल केशोंको धारण किये हुए मिलती है। इस संबंध मेवाड़ के केसरियानाथ जो ऋषभका ही नामांतर है, ध्यान देने योग्य
१
शान्तिपर्व ३४० •७२-७३, ९९-१००, भागवत पुराण ३.१२ । भागवत पुराण ५. ३. ५. ६., शिव महापुराण ७. २ । ऋग्वेद १०. १३६ ।
२ ३
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org