Book Title: Mahavira Jain Vidyalay Suvarna Mahotsav Granth Part 1
Author(s): Mahavir Jain Vidyalaya Mumbai
Publisher: Mahavir Jain Vidyalay
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भारतीय दर्शनमें आत्मवाद: ५
जीव और ब्रह्मकी एकता के वे पूर्ण समर्थक हैं। शंकराचार्यका कथन है कि प्रमाण आदि सकल व्यवहारोंका आश्रय आत्मा ही है । अतः इन व्यवहारोंसे पहले ही उस आत्माकी सिद्धि है। आत्माका निराकरण नहीं हो सकता । निराकरण होता है आगन्तुक वस्तुका स्वभावका नहीं ।' मनुष्य, शरीर - आत्मा के संयोगसे बना हुआ जान पड़ता है। परंतु जिस शरीरको हम प्रत्यक्ष देखते हैं, वह अन्यान्य भौतिक विषयोंकी तरह मायाकी सृष्टि है । इस बातका ज्ञान हो जानेपर आत्मा और ब्रह्ममें कुछ अन्तर नहीं है । 'तत्त्वमसि' वाक्यका अर्थ है कि जीवात्मा ब्रह्मसे अभिन्न है अर्थात् दोनोंमें अभेद - सम्बन्ध है । ' त्वं' से जीवका अधिष्ठानरूप शुद्ध चैतन्य और 'तत्' से परोक्ष तत्त्वका अधिष्ठान शुद्ध चैतन्य समझना चाहिये । इसी तादात्म्यका ज्ञान करना 'तत्त्वमसि' वाक्यका तात्पर्य है । अद्वैत मतानुसार जीवका कर्तृत्व नैमित्तिक है ।
रामानुज के विशिष्टाद्वैत के अनुसार - तीन तत्त्व होते हैं : चित्, अचित् तथा ईश्वर । उपनिषदोंमें वर्णित ईश्वर और जीवकी एकला अभेद सूचक एकता नहीं है । ब्रह्म, चित् (जीव) अचित् (जड़) दोनों तत्त्वोंसे युक्त है अतः वह सगुण है, निर्गुण नहीं । चित् और अचित् अंश एकदूसरे से भिन्न हैं, तथापि उन दोनों अंशोंसे विशिष्ट होते हुए भी ब्रह्म एक है । ब्रह्ममें ये दोनों अंश (तत्त्व ) अपनी बीजावस्था में निहित रहते हैं । प्रलयावस्था में जीवों तथा भौतिक पदार्थोंका नाश हो जाता है तब भी ब्रह्म, शुद्ध चित् (शरीररहित जीव) और अव्यक्त अचित् ( निर्विषयक-भूत तत्त्व ) से युक्त रहता है । इसे कारण ब्रह्म कहते हैं । जब सृष्टि होती है तत्र ब्रह्म शरीरधारी जीव तथा भौतिक पदार्थोंके रूपमें अभिव्यक्त होता है यह कार्य ब्रह्म है । ब्रह्म अनन्त गुणों का भंडार है । यह सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान् है । शांकर मतमें ब्रह्म ही मायोपाधिसे ईश्वर और अविद्योपाधिसे जीव कहलाता है, परन्तु जड़ जगत प्रातिभासिक ( मिथ्या) ही है । अतः एक ही तत्व है । रामानुज के अनुसार ब्रह्म ही ईश्वर है, उसके शरीरभूत जीव और जगत् उससे भिन्न हैं तथा नित्य हैं । अतः पदार्थ तीन है, एक नहीं । जीव अणुपरिमाण हैं किन्तु अनन्त हैं। वे एकदूसरे से सर्वथा पृथक हैं।
उपनिषद् और गीताके अनुसार - आत्मा नित्य है, न कभी वह मरता है और दोषोंको प्राप्त करता है। आत्मा शरीर से विलक्षण, मनसे भिन्न, विभु" और अपरिणामी है । वह वाणी द्वारा अगम्य है ।" उसका विस्तृत स्वरूप नेति नेति के द्वारा बताया है ।" उपनिषदोंने दो प्रकार के वाक्योंका प्रयोग किया है। एक निर्विशेष लिङ्ग और दूसरा सविशेष लिङ्ग । सविशेष लिङ्ग श्रुतियाँ, सर्वकर्मा, सर्वकाम, सर्वगन्ध आदि है । निर्विशेष श्रुतियाँ 'वह न स्थूल है, ' न अणु है, न क्षुद्र है, न विशाल है आदि हैं।
१ आत्मा तु प्रमाणादिव्यवहाराश्रयत्वात् प्रागेव प्रमाणादिव्यवहारात् सिध्यति । न चेदृशस्य निराकरणं संभवति, आगन्तुकं हि निराक्रियते न स्वरूपम् । शां० भा० २/३/७
वस्त्वन्तर विशिष्टस्यैव अद्वितीयत्वं श्रुत्यभिप्रायः । सूक्ष्मचिदचिद्विशिष्टस्य ब्रह्मणः तदानीं सिद्धत्वात् विशिष्टस्यैव अद्वितीयत्वं सिद्धम् । वेदान्ततत्त्वसार |
बालाग्रशत भागस्य शतधा कल्पितस्य । भागो जीवः स विज्ञेयः स चानन्त्याय कल्पते । श्रे० ५-९ ।
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३
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न हन्यते हन्यमाने शरीरे ...... कठ. उप. १-२ । १५/१८
ईशावास्यमिदं सर्वं । यत् किञ्च जगत्यां जगत्-ईशा० उप० ।
५
६ अविकार्योऽयमुच्यते ...... गी० २ - २५ |
७
यतो वाचो निवर्तन्ते, अप्राप्य मनसा सह— तैत्त० उप० २।४ ।
९
स एष नेति नेति बृद्द० उप० ४/५/१५ ।
सन्ति उभयलिङ्गा: श्रुतयो ब्रह्मविषथः । सर्वकर्मेत्याद्याः सविशेषलिङ्गा : अस्थूलमनणु इत्येवमायाश्च निर्विशेषलिङ्गा;
- शाङ्कर भाष्य ।
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