Book Title: Mahapurana Part 4
Author(s): Pushpadant, P L Vaidya
Publisher: Bharatiya Gyanpith

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Page 11
________________ 18] महाकवि पुष्पवंत कृत महापुराण भोक्ता वह खुद है इसलिए वर्तमान में वह जो है उसके लिए वह खुद जिम्मेदार है। जैन दर्शन का यह सिद्धान्त कवि के सुजन का आधारभूत सिद्धान्त है जो उसके चरित्र-चित्रण और घटनाओं के वर्णन में प्रतिविम्बित है। यह होते हुए भी उनकी कविता के कुछ भौतिक मुल्य भी हैं जिन्हें रामकथा के पात्र जीते हैं और जिन के प्रति कवि का संवेदनशील लगाव है। कवि के रामकाक्ष्य के आध्यात्मिक मूल्य परम्परा से प्राप्त हैं, पहले से निर्धारित हैं और जिनके अनुसार पात्र असा जोकहीने ल: मोरिंग हार है उसे कलात्मक अभिव्यक्ति देना ही कवि का उद्देश्य है। पुष्पदन्त ने जिस परम्परागत रामकथा को चुना है और उसे जिस रूप में काव्य के सारे मे डाला है, उसमें सामन्तवाद के आदर्शों को स्पष्ट छाप है। उदाहरण के लिए, राम और लक्ष्मण ने पूर्वकालीन तीसरे भव में, जब वे राजपुत्र और मंत्री-पुत्र थे, युवा सेठ की पत्नी कुबेरदत्ता का अपहरण किया था। प्रजा के विरोध करने पर दोनों को फाँसी होती, परन्तु वृद्धजनों के बीच-बचाव के कारण वे बच गए, और जैन तप करके वे बलभद्र और वासुदेव हुए। उन्हें फ:सो पर नहीं लटकाए जाने का दूसरा कारण महाबल मुनि का यह भविष्य-कदन रहा है कि दोनों तीसरे जन्म में महापुरुप होने वाले हैं। प्रश्न है कि यदि भविष्य कथन में यह बात निकलती कि दोनों महान् की जगह मामान्य पुरुष या आम आदमी होने वाले है तो क्या राज्य मृत्युदण्ड माफ कर देता? दुसरा निष्कर्ष यह है कि लोग सत्ता का दुरुपयोग करने के लिए ही सत्ता में जाते हैं। सत्ता का सुख ठोस, जबर्दस्त और मम्मोहक है। चाहे वह सामंतवाद हो या प्रजातन्त्र, राजपुरुष और उनके निकट के लोग सुरासुन्दरी में लिप्त रहन रहे हैं । लिप्त तो दूसरे भी हैं । मर्यादित लिप्त होना बहुत बुरा भी नहीं है। परन्तु जिसके हाथ में सत्ता होती है (चाहे धन की हो या राज्य की) उन्हें मनोरंजन के क्षेत्र और साधन अधिक सहजता से सुलभ होते हैं। हो सकता है राम-लक्ष्मण ने अपने तीसरे भव में वह सब न किया हो जो कर्म फल निवासी जैन कवियों ने उनके साथ जोड़ दिया है. सत्-असत कम का फल बताने के लिए। लेकिन जब इम राम के वर्तमान जीवन में उतार-चढ़ाव देखते हैं तो सोचते हैं कि उसका कोई न कोई कारण जरूर रहा होगा। संगार में अचानक कुछ भी घटित नहीं होता, कारण कार्य और नाय कारण । कारण-कार्य की इस शृखला का नाम ही संपार है। प्रत्येक दर्शन इस श्रृंखला की व्याख्या अपने ढंग से करता है। जैन-नर्णन में भी इसकी व्याख्या कर्म सिद्धान्त के आधार पर की है। इसका उद्देश्य यह बताना है कि व्यक्ति जो कुछ करता है उसका फल उसे ही भोगना पड़ता है। उसमें किसी की भागीदारी नहीं हो सका। रार की नरव रावण का वर्तमान जीवन भी उसके पूर्व कमों का फल है। रागढेप की क्रियाप्रतिक्रियाएँ जन्म-मनालगनक चलती है। पुष्पदन्त की रामकथा में कोयी के वरदान, राम का वनवास, सीता की अग्नि परीक्षा, राम द्वारा सीता का निर्वासन, राम लवगांकुश, जटायु, बलयात्रा आदि प्रसंग नहीं है। एक महत्त्वपूर्ण बिन्दु यह है कि राजा दशरथ को म्वाज में रावण द्वारा सीता के अपहरण का आभास मिल जाता है जिसकी सूचना दे राम को भेज देते हैं। विभीषण को लंका का राजा बनाकर सम लक्ष्मण और सीता के साथ दिग्विजय पर निकलते हैं, जो लक्ष्मण के धंचक्रवर्ती बनने के लिए जरूरी है। उसको यह दिग्विजय, भरत चक्रवर्ती की दिग्विजय से मिलती-जुलती है। चरित्र-चित्रण दशरथ - पुणवन्त के अनुसार, दशरथ जन्मत: जैन नहीं थे। प्रारम्भ में वे हिंसक यज्ञों में विश्वास रखते थे। अपने मन्त्री अतिशयमन के, जो जन धा, समझाने पर उन्होंने जैन धर्म स्वीकार किया।

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