Book Title: Lalit Vistara
Author(s): Haribhadrasuri, Bhuvanbhanusuri
Publisher: Divya Darshan Trust

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Page 21
________________ असंगत : (१-२) अकृत कृत्यता, अन्यामुक्त मोक्षलय व पुनः जगत्सर्जन अवशिष्ट (३) हीनादिकरणे इच्छाद्वेषादि (४) संसारी की अपेक्षा जघन्य मुक्तत्व २०५ उपदेश एवं कल्याण करने वाले अर्हत्प्रभु में इच्छाद्वेषादि की आपत्ति क्यों नहीं ? २०६ ईश्वर में निमित्तकर्तृत्व का निरास * स्वतन्त्र कर्ता ६ कारक: भगवदात्मा में ६ कारक २०७ कर्त्ता का स्वातन्त्र्य क्या ? २०८ (१) एक की सत्ता के नाश की आपत्तिवश लय अनुचित है (२) उपचय नहीं इससे भी लय नहीं * मोहविषप्रसर- कटकबन्ध * भगवान में निमित्तकर्तृत्व प्रणिधानाद्यालम्बन रुप से २०९ स्वात्मतुल्यपरफलकर्तृत्वनाम की ८ वीं संपदा का ३१. सव्वन्नूणं सव्वदरिसीणं २१० बुद्धिनिष्ठ ज्ञानवादी कापिलों (सांख्यों) की प्रक्रिया ** सांख्यतत्त्व २५ ज्ञान चंतन का नहीं किन्तु बुद्धि का धर्म क्यों ? पुरुष में अगर भ्रम तब कूटस्थनित्यता असंगत सांख्यमत का खण्डन : द्रव्य-गुण का भेदाभेद लक्षण- संख्या-प्रयोजन- नाम के भेद से द्रव्यपर्याय में भेद * द्रव्य परिणामी आधार क्यों ? २१५ २१२ २१३ २१४ गुण- पर्याय -वर्तन ही द्रव्य वर्तन चन्द्र- चन्द्रिका का दृष्टान्त दुःख-द्वेषादि का कारण कर्मोदय, ज्ञान नहीं ज्ञान और दर्शन प्रत्येक के विषय सर्व पदार्थ कैसे ? तब भी ज्ञान से विषमताधर्मयुक्त पदार्थ ज्ञात होंगे, दर्शन - ज्ञेय-समताधर्मयुक्त तो नहीं न ? मोक्ष में साकार निराकार ज्ञान का निषेधक सांख्यमत ** आत्मा निस्तरङ्ग समुद्रसा * अमूर्त ज्ञान में साकारता कैसी ? * जैन मत से मोक्ष में ज्ञान का उपपादन विषयग्रहणपरिणाम * २१५ २१६ उपसंहार २१७ २१८ ज्ञान में आकार - ज्ञान में प्रतिबिम्ब संक्रमरुप आकार मानने में आपत्ति * प्रतिबिम्ब छायापुद्गल है Jain Education International २१९ २२० २२१ २२२ २२४ २२६ मपुणरावित्तिसिद्धिगइनामधेयं ठाणं संपत्ताणं २२३ आत्मा को सर्वव्यापी मानने वाला वैशेषिक दर्शन : (१) उत्पत्ति नाश की आपत्ति नहीं (२) दूर कार्य में अदृष्टसम्बन्ध संगत * वैशेषिक- आत्मा विभु' मत के खंडनार्थ * विशेष्य स्थान, एवं 'शिव-अचल अरोग' विशेषणों के सयुक्तिक अर्थ * वस्तु स्वरुप में स्थित, स्थान में नहीं एक वस्तु में आधार - आधेय भाव कैसे ? स्थान के विशेषण स्थानी में अभेदोपचार से वैशेषिकमान्य आत्मविभुत्व - नित्यत्व का खंडन आत्मा नित्यानित्य * २२८ जैनमत के प्रति संक्रमणरुप प्रतिबिम्बाकार का आक्षेप अयुक्त है विषयाकार के संक्रमण का विज्ञानवादी बौद्ध द्वारा साकार एवं निराकार दोनों की सिद्धि जैन मत में ही * विशेषग्रहणपरिणाम यह आकार * सामान्यग्रहणपरिणाम यह निराकारता ३२. सिवमयलमरुअमणतमक्खयमव्वाबाह २२९ खण्डन क्षणिकता के कारण प्रतिबिम्ब का निषेध जैनमत में विशिष्ट प्रतिबिम्बाकार विषय-ग्रहणपरिणामरुप में मान्य है २२७ विभुमत - समर्थक युक्तियों का खंडन नमो जिणाणं जिय भयाणं २३१ आदि-अन्त सम्बद्ध नमो पद मध्यव्यापी * संसारसंबंध से ही भयोत्थान | भव ब्रह्मसत्तामात्रमूलक होने से अद्वैत में भवक्षय अशक्य है । परमब्रह्म-लय के मत में भयशक्ति का क्षय नहीं २३० जीव का पृथग्भाव शुद्ध ब्रा में से था अशुद्ध ब्रह्म में से ? दोनो ही असंगत । ब्रह्म एक एवं निरवयव नहीं, सावयव मानने पर जैनमत - स्वीकृति २३३ अद्वैतसमर्थक वचन चर्चा को छोड़कर कार्य करने में कूपपतित- उद्धार का दृष्टांत * कूपपतितोद्धार कर्त्तव्य, चर्चा नहीं २० For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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