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उसके लेखक की विद्वत्ता, सत्यता, योग्यता अथवा असभ्यता और मनोमालिन्य का परदा भी खुला हो जाता है।"
महानुभावो ! जिस पुस्तक में आज हमाग प्रवेश है उसका नाम है यतीन्द्रमुखचपेटिका। इसके रचयिता (लेखक) का नाम पुस्तक पर नहीं है। इसका सबब लेखक के डरपोकपन के सिवाय
और कुछ नहीं है। इसमें बंगाल की मुसाफिरी करते समय जो कंगाली अवस्था का यत्किचित अनुभव प्राप्त किया गया, उन्हीं में के कुछ नमूने दर्ज हैं, जिनके अवलोकन करने से लेखक का नाम, उसके हृदय की मलिनता, उसकी पैशाचिक-भाषा और उसकी पाशविकता का पूरा पता लग जाता है । ठीक ही है कि जिसे पुस्तक पर लेखक तरीके अपना नाम रखने खाने में भी डर लगता है उसके लेखों में बजनदारी कितनी हो सकती है ? कुछ भी नहीं।
दर असल में लेखक ने अपनी किताब का यतीन्द्रमुख चपेटिका “यह नाम रक्खा है, इस नाम से ही लेखक के मुखपर चपेटा लगानेवाला अर्थ निकल आना है । देखो ! जैन कोषकागेंने और टीकाकार-महर्षियोंने यति शब्द का अर्थ साधु किया है, उनके इन्द्र याने मूरि-आचार्य; यति और इन्द्र का समास कर देने से यतीन्द्र बन जाता है, जिसके फलितार्थ से यह प्राशय प्रगट होता है किआचार्य कहानेवालों के मुख पर चपेटा लगानेवाली यह पुस्तक है। अब सोचना चाहिये कि प्राचार्य कहानेवाले कौन हैं ?, सागरानन्दसरि । नो बस इसका मार्मिक-अर्थ समझलो कि पर
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