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चार्यने मंजूर किया है कि संवेगीलोकोने सफेद वस्त्र नहीं रखे ऐसा तो है ही नहीं " वाद में ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के लालच में पडकर पृष्ठ १० वे की बीसवीं पंक्ति में लिख दिया कि टीकाकारने शुकु वस्त्र छोडने का कहा है इन दोनों लिखावट में परस्पर कितनी बिरुद्धता है ? इसको नवतत्त्व का जानकार लडका क्या उससे भी नीचे दर्जे का पढा हुवा बालक जान सकता है | भला ! जो लोग अपने पारस्परिक विरोधि लेखों को भी देखने या समझने की शक्ति नहीं रखते, वे अपवाद का आश्रय लेके केशरिया मेशरिया में लुभावें, इसमें श्रर्य ही कौन है ?; कोई नहीं ।
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दरअसल में ऐसे लोग या पिशाच-पंडिताचार्य अपनी अपनी मलिन भावनाओं के वश होकर निष्कलङ्क शास्त्रों के अर्थो को मरोडने में भी कमी नहीं रखते और न उनको इस प्रकार के महान् अनर्थ के लिये कुछ भय ही पैदा होता है । ऐसे भवपिशाचग्रसित महानुभावों के अर्थ मरोड का भी एक नमूना देख लेना चाहीये । "
चपेटिका के १० वे पृष्ठ की ७ वीं पंक्ति में श्री गच्छाचार लघुवृत्ति में से उध्धृत करके ८६ वीं ' जत्थयवार डियारां इस गाथा की सार्थ वृत्ति लिखी है कि
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तथा यत्र च ' वारडिया ' ति, आद्यन्तजिनतीर्थापेक्षया रक्तवस्त्राणां ' ते कूडियाणां ' ति नीलपीतविचित्र भाति भरतादियुक्तवस्त्राणां च ' परिभोगः
सदा निष्कारणं
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