Book Title: Kulingivadanodgar Mimansa Part 01
Author(s): Sagaranandvijay
Publisher: K R Oswal

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Page 30
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७ ) व्यापार: ' मुक्त्वा ' परित्यज्य शुक्लवस्त्रं यतियोग्याम्बरमित्यर्थः, क्रियत इति शेषः, का मर्यादा १ न काचिदपि तत्र गणे इति । - जिस गच्छ में प्रथम चरम शासन की अपेक्षा से लाल वस्त्र और नील पीत विचित्र तरह की भांत से भरे हुए वस्त्र का हरदम निष्कारण व्यापार करने में आवे, और साधु लायक शुद्ध वस्त्र छोड दिया जाय, तो उस में मर्यादा कौनसी रहे ? | देखिये ! टीकाकारने शुक्ल वस्त्र छोडने का कहा है। _________ महानुभावो ! आपलोगों की हार्दिक कुटिलता और उत्सूत्रता को अच्छी तरह देख ली । पाठको ! आप लोग भले प्रकार समझ सकते हैं कि संसार में अपने मत - पोपणार्थ कुलिंगी - भवाभिनन्दी लोग शाख- पाठों का अर्थ भी कैसा विचित्र कपोल कल्पित कर डालते हैं ? । भला ! उपरोक्त वृत्ति में ' शुक्ल वस्त्र छोडने को कहा है इस अर्थ के बोधक शब्दों की कहीं गंध तक भी है और शुक्ल शब्द का अर्थ शुद्ध ऐसा कहीं भी उक्त वृत्ति में ग्रहण किया गया है ? या कहा जाय कि नहीं, तो फिर पिशाचपंडिताचार्य को इस उत्सूत्रता के बदले में चपेटिका के प्रति चपेटा सिवाय दूसरा क्या दिया जा सकता है ?, नहीं ! नहीं दूसरा कुछ नहीं । ऐसे उत्सूचभाषियों को तो यहाँ भी चपेटा और वहां ( भवान्तर में ) भी चपेटा ही मिलेगा | खैर, परम्परायाही अपवादाभिलाषुक लोगों के हितार्थ गच्छाचारपयन्ना की उक्त लघुवृत्ति के पाठ का वास्तविक अर्थ यहाँ लिख दिया जाता है " जिस गच्छ में प्रथम चरम तीर्थंकर के शासन की For Private And Personal Use Only

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