Book Title: Kulingivadanodgar Mimansa Part 01
Author(s): Sagaranandvijay
Publisher: K R Oswal
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Page #1 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir | कुटिगिवदनोद्गार-मीमांसा। (भाग-पहला) लेखक मुनिश्रीसागरानन्दविजय।। For Private And Personal Use Only Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir Resear णमो समणस्स भगवत्र महावीरस्स | कुलिङ्गिवदनोद्गार - मीमांसा । ( भाग - पहला ) -*(@CK+ लेखक मुनि श्री सागरानन्दविजय | प्रकाशक के. आर. ओसवाल, जावरा ( मालवा ) श्री वीर सं० २४५२ विक्रम सं० १९८३ आनंद प्रिन्टिंग प्रेस - भावनगर में मुद्रित । मूल्य- सदुपयोग | सन् १६२६ इस्वी. रा० सू० ० सं० २१ For Private And Personal Use Only T Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सूचना शान्ति, प्रेम और योग्यता का भंग होता है । इसलिये हरएक व्यक्ति को अपने लेखों, वचनों और व्यवहारों में हर समय सभ्यता से काम लेना चाहिये । ऐसा न करने से प्रतिवादियों को वैसी ही असभ्यता का सहारा लेने का मौका मिलता है, जिसका आखिरी नतीजा द्वेष-निन्दा के सिवाय और कुछ नहीं आता।" नूतन पुस्तकों की सत्यता अथवा असत्यता पर अपने हार्दिक विचार प्रकट करना यह हरएक विद्वान् का खास कर्त्तव्य है, इमलिये “ कुलिङ्गिवदनोद्वार-मीमांसा" पहिले भाग के विषय में भी विद्वान् वर्ग अपने २ विचार अवश्य प्रगट करेंगे. परन्तु उन को यही सूचित किया जाता है कि प्रस्तुत पुस्तक के विषय में जो कुछ लिखना हो वह सभ्यता के विरुद्ध नहीं होना चाहिये। अगर कोई अन्धश्रद्धा के कारण सभ्यता के तरफ ख्याल न करते हुए असभ्यता से पेश आवेगा तो लाचार होकर के मेरी लेग्वनो भी उसी प्रकार के मार्ग का अनुकरण किये विना न रहेगी। अतएव शान्ति और सभ्यता से सब कोई अपने २ विचार प्रकट करें, जिससे कि शान्ति का क्षेत्र संकुचित नहीं होवे । मुनि-सागरानन्दविजय. For Private And Personal Use Only Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । 3 -00 -00 - -00 - - -00D propDICCS ॐ अहन्नमः । विना टाला-ठूली के शीघ्र ही तैयार हो जाओ । शास्त्रार्थ के लियेपांचवीं वार आव्हान (चेलेंज) - - श्रीमान् सागरानन्दसूरिजी! ___ आपको मालवा देश के रतलाम सी. आई. और सेंवलिया में शास्त्रार्थ कर लेने के लिये तीन मर्त्तवा मुद्रित प्रतिज्ञा और नियम के साथ जाहिर चेलेंज दिये गये । लेकिन वहाँ आपने सभा में शास्त्रार्थ की असमर्थता से हेन्डबिलों के जरिये ही शास्त्रार्थ || चालु रखने की मांगणी की । आपकी इस निर्बल मांगणी को भी मंजूर करके हमने अपनी मान्यता के दर्शक मय शास्त्र सबूतों के हेन्डबिल पबलिक आममें जाहिर करना शुरू किये । परन्तु उनका भी जवाब न दे सकने के कारण आखिर आपने महाराजा रतलाम-नरेश के दीवान साहब की खुशामद करके उनके मारफत जजसाहब को भेजा कर हेन्डबिल - -001 -00 100 For Private And Personal Use Only Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२) -00 - - 0 -00 00 - 00050566900 बंद करवाये और वहाँ से आपने अपना पराजय मान के किसी बहाने से पलायन कर दिया। पलायन कर जाते हुए आपके पास फिर भी गवालियर स्टेट के प्रसिद्ध तीर्थ-स्थल मक्षीजी में शास्त्रार्थ कर लेने के लिये चौथी बार मय प्रतिज्ञापत्र के चेलेंज पहोंचाया गया और सूचित किया गया कि मदीजी में आप पंद्रह रोज ठहरो, हम बहुत जल्दी आते हैं। लेकिन शास्त्रार्थ करने के लिये वहाँ भी आपके पैर नहीं टिक सके । अस्तु, अब भी जल्दी विना टालाटली के तैयार हो जाओ । हम जोधपुर रियासत के प्रसिद्ध तीर्थस्थल श्री भांडवा-महावीर और भीलड़िया पार्श्वनाथ; इन दो क्षेत्रों में से एक में शास्त्रार्थ के लिये तैयार हैं। शास्त्रार्थ करने के लिये एक पक्षी क्षेत्र अयोग्य हैं, इसलिये हमारे तरफ से पक्षपात रहित ऊपर मुताविक दो क्षेत्र मुकर्र हैं । इनमें दोनों के पक्ष का एक भी घर नहीं है । आपके तरफ से शास्त्रार्थ करने की निश्चित मंजूरी मिलने पर ऊपर के दो तीर्थक्षेत्रों में से ही किसी जैनेतर को जो सभ्य ! और समझदार होगा मध्यस्थ चुन लिया जायगा। - %DEOSCRI %D LOSE0E0%D0se For Private And Personal Use Only Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - AA A UV A N - 3 -00 हम प्रतिज्ञा करते हैं कि "श्री महावीरस्वामी के वर्तमान शासन में साधु साधियों के लिये शास्त्रमर्यादा मे मफेद कपड़े रखना अच्छा नहीं हैं" अथवा " अपवाद याने-गाड़ी वाड़ी लाड़ी के प्रेमी यतियों की शिथिलता से महावीर-वेश का परिवत्तन कर डालना" एस भावदर्शक मज़मून को आप जो जैन शास्त्रों के सबूतों से साबित कर दोगे और हमारे तरफ के दिये हुए शास्त्रीय सबूत उसका खंडन नहीं कर सकेंगे, तो हम वस्त्र का वर्ण परावर्तन करना मंजूर कर लेवेंगे । अन्यथा उसी सभा में तीर्थनायक भगवान् के समक्ष मय साधु समुदाय के आपको निःसंकोच सफेद कपडे धारण कर लेना होंगे । १९ -१२-२६ वस ऊपर मुताविक आपको भी प्रतिज्ञा मंजर करके जल्दी से शास्त्रार्थ के लिये हाजिर हो जाना चाहिये । हमारे तरफ से स्थान और प्रतिज्ञा ऊपर मजिव और समय पौषशुक्ला पूर्णिमा, व मध्यस्थ उपरोक्त तीथ क्षेत्रों में का जैनेतर एक सभ्य सद्गृहस्थः बिलकुल नियत ही समझना चाहिये । इतिशम् ता०१६-१२-२६ मुनि यतीन्द्रविजय । LaCoCad 250000000900500 0000000000000 DOID DO. For Private And Personal Use Only Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ४ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ताजा कलम - शास्त्रार्थसभा में वादि प्रतिवादि मयसाधु समुदाय र मध्यस्थ एक जैनेतर गृहस्थ के अलावा दूसरा कोई भी नहीं ने पावेगा और न वादि प्रतिवादि के सिवाय कोई बोलने पावेगा । इत्यादि बातों का सरकारी पूरा प्रबंध हमारे तरफ से रहेगा और उसका सभी खर्चा हार जानेवाले के जिम्मे रहेगा । इसी प्रकार शास्त्रार्थ करते समय वादि प्रतिवादि को सभ्यता से बोलने के लिये बाधित होना पड़ेगा । इस शास्त्रार्थ के लिये सागरानन्दसूरिजी के सिवाय किसी को बाहर नहीं आना चाहिये और आवेगा तो माना नहीं जायगा | 5000 For Private And Personal Use Only Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शासनपति - श्रीमहावीरस्वामिने नमः । कुलिङ्गिवदनोद्गार - मीमांसा । ( भाग - पहला ) ---- (पिशाचपंडिताचार्य की कुयुक्तियों का वास्तविक उत्तर) चिबुधवृन्दविवन्दितवन्द्यपद् विहितभक्तिविभञ्जितभूविपत् । भवपिशाच कुपूरुषबोधक्रुद् विजयतां प्रभुवीर सुशासनम् ॥ १ ॥ 1 " चमत्कार " संसार चमत्कार पूर्ण है, इसमें अनेक अजब-गजब चमकार भरे हुए है, कमी है तो केवल चमत्कारी पुरुषों कीं । लाखों पुरुषों के बीच में चमत्कारी पुरुष कहीं कहीं इनेगिने दृष्टिगोचर होते हैं और उनके दिखलाये हुए एक एक चमत्कार भी दुनियां में जादुई असर पैदा करते हैं | चमत्कार वही सच्चा माना जा सकता है, जिसके देखने मात्र से सभ्य-संसार में आनंद और श्रीवीरप्रभु के शासन से बहिष्कृत कुलिंगी अपवादी संसारमें खलभलाट उत्पन्न हो जाती हो । " संसार के अनेक चमत्कार दर्शक ग्रन्थों में से पीतपटाग्रह-मीमांसा नामका चमत्कार पूर्ण एक छोटासा ग्रन्थ है । जिसमें For Private And Personal Use Only Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६ ) लेखित एक एक चमत्कार इतना नीत्र प्रभाववाला है कि जिसके अवलोकन मात्र से सभ्य समुदाय में सत्य वस्तुस्थिति का भान हो आता है और कुलिंगी - अपवादियों के मलिन हृदय में खलभनी मच जाती है । इसको मुद्रित हुए कुछ कम तीन वर्ष हो चुके हैं, परन्तु सत्य वस्तुस्थिति को शास्त्रीय प्रमाणों से दिखलाने वाले इसके रसपूर्ण मंत्र अभीतक नूतन रूप से ही अलंकृत हैं और वे अपनी सत्यता के कारण हमेशां नूतनावस्था में ही कायम रहेंगे ! पाठको ! इस पुस्तक के चमत्कारी सिद्धान्त शास्त्रार्थ और हेन्डबिलों की कसोटी पर चल कर अपनी वास्तविक सत्यता को सिद्ध कर चुके हैं। इसलिये इसके विषय में अधिक उल्लेख करने की आवश्यकता नहीं है । तथापि इतना तो अवश्य लिखना पड़ता है कि इसी महा महिमशाली पुस्तक के लिये शहर रतलाम में सागरानंदसुरिजीने कोई सात महीने तक वर दौड़ पकी अपने अन्ध-श्रद्धालुओं को घुणाये, हेन्डबिलों के द्वारा अपनी हार्दिक मलिनता को भी जाहिर की, शास्त्रीय प्रमाण तथा मुठरिया साह के उच्चाटन - मंत्र ( टिकटों) से घबराकर राज्य में जाके आजीजी सी की और आखिर शास्त्रार्थ की गुदड़ी गले में पड़ती देख तीर्थ जाने का बहाना निकाल के रतलाम से निशि - पलायन भी किया । यह सब प्रभाव किसका है ? पीतपदाग्रह - मीमांसा में प्रालेखित शास्त्रीय प्रमाणोपेत चमत्कारों का । आप लोग जानते ही हैं कि-प्रबल चमत्कारों से उत्पन्न होने वाली कुडकुड़ाहट एकदम मिट नहीं जाती, उसकी आकस्मिक लगा For Private And Personal Use Only Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७) कई दिन तक ज्यों की त्यों कायम रहती है । इसी नियमानुसार अपवाद के हिमायती कुलिंगियों के मलिन हृदय में पलायन कर जाने पर भी उन चमत्कारों की कुड़कुड़ाहट अभी तक मिटी नहीं है, इससे उनने गोड़वाड़ की अन्ध- गोदडी में बैठ कर अपनी मलिन हृदय की जलन को गालियों से शान्त करना शुरु की है। ठीक ही है-“ संवक या भाट लान प्रयत्न करने पर भी अपने जजमान से कुछ नहीं पाते, तब वे उसके पुतलों पर अपने प्रात्मबल को निछगवल करके ही शान्त हो जाते हैं।" उद्देश "कारणमनुदिश्य मन्दोऽपि न प्रवर्तते-विना कारण मूर्ख भी प्रवृत्त नहीं होता, याने मूखों की प्रवृत्ति भी किसी कारण के लिये हुए ही होती है तो मर्मज्ञ बुद्धिमानों की प्रवृत्ति विना कारण कैसे हो सकती है ?, उसमें कोई मुख्य या गौण कारण अवश्य ही होता है । फर्क शिर्फ इतना ही है कि मूरों की प्रवृत्ति असभ्यता और स्वार्थपगयणता की पोषक है और बुद्धिमानों की प्रवृत्ति सभ्यता और परोपकारिता की द्योतक है।" जन साधु साध्वी अपनी वक्रप्रकृति के कारण अपवादी-कुलिगियों के समान हमेशा रंगकी झग-मगाहट में लग कर अपने संयम को बरबाद न कर बैठे और शोभादेवी के उपामक न बन जायँ इसीलिये श्रीमहावीर-शासन में साधु साध्वियों के लिये श्वेत, मानोपेत, जीर्णप्राय और अल्पमूल्य वस्त्र रखने की आज्ञा पाई जाती है। शास्त्रकारों की यह आज्ञा अथवा प्रवृत्ति निरर्थक नहीं, सार्थक है। वर्तमान For Private And Personal Use Only Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (८) महावीर-शासन में ऐसे कोई कारण (अपवाद) उपस्थित नहीं हैं, जिनके वश से शासन कथितप्रवृत्ति में परिवर्तन करना पड़े, और यतियों की शिथिलता को मुख्य कारण मानकर अपने गुप्त अपवादों के सेवनार्थ वर्ण--पगवर्तन किया गया, या किया जाता है वह महावीर-शासन में शास्त्रोक्त-प्रवृत्ति नहीं, किन्तु कपोल कल्पित ही है । इसकी सिद्धि के लिये अनेक प्रमाण प्रकाशित किये जा चुके हैं अतएव इस विषय को विस्तन करना निष्फल है। पाठकवर ! हमारी आधुनिक प्रवृत्ति, कुलिंगी अपवादी लोगों के तरफ से सत्य वस्तुस्थिति को उड़ानेके लिये जो कुतर्क की गई हैं और जो महावीरशासन के असली मुनिवेश को अनुचित ठहराया गया है। उसीका शास्त्रीय प्रमाण युक्तियों से समवलोकन करके सत्य वस्तुस्थिति को प्रकाश में लाने मात्र है। वह भी समवलोकन ( निरीक्षण ) जिस क्षुद्र-दृष्टि से अपवादि कुलिंगियों ने किया है उस दृष्टि से नहीं, किन्तु सभ्यता को लक्ष्य में रखकर शास्त्र दृष्टि से करना है और वस्तुस्थिति की वास्तविकता को सभ्य-समाज के सम्मुख रखना है । प्रवेश कोई भी बात या ग्रन्थ ( पुस्तक ) हो उसमें जब तक प्रवेश नहीं किया जाना, तब तक उसके आन्तरिक स्वरूप की जसलियत का पता नहीं लगता । प्रवेश के बाद ही लेखक का परिचय, लेख का अभिप्राय और उसका मार्मिक-स्वरूप प्रत्यक्ष रूप से दृष्टि के सन्मुख खड़ा हो जाता है। इतना ही नहीं, बल्कि For Private And Personal Use Only Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उसके लेखक की विद्वत्ता, सत्यता, योग्यता अथवा असभ्यता और मनोमालिन्य का परदा भी खुला हो जाता है।" महानुभावो ! जिस पुस्तक में आज हमाग प्रवेश है उसका नाम है यतीन्द्रमुखचपेटिका। इसके रचयिता (लेखक) का नाम पुस्तक पर नहीं है। इसका सबब लेखक के डरपोकपन के सिवाय और कुछ नहीं है। इसमें बंगाल की मुसाफिरी करते समय जो कंगाली अवस्था का यत्किचित अनुभव प्राप्त किया गया, उन्हीं में के कुछ नमूने दर्ज हैं, जिनके अवलोकन करने से लेखक का नाम, उसके हृदय की मलिनता, उसकी पैशाचिक-भाषा और उसकी पाशविकता का पूरा पता लग जाता है । ठीक ही है कि जिसे पुस्तक पर लेखक तरीके अपना नाम रखने खाने में भी डर लगता है उसके लेखों में बजनदारी कितनी हो सकती है ? कुछ भी नहीं। दर असल में लेखक ने अपनी किताब का यतीन्द्रमुख चपेटिका “यह नाम रक्खा है, इस नाम से ही लेखक के मुखपर चपेटा लगानेवाला अर्थ निकल आना है । देखो ! जैन कोषकागेंने और टीकाकार-महर्षियोंने यति शब्द का अर्थ साधु किया है, उनके इन्द्र याने मूरि-आचार्य; यति और इन्द्र का समास कर देने से यतीन्द्र बन जाता है, जिसके फलितार्थ से यह प्राशय प्रगट होता है किआचार्य कहानेवालों के मुख पर चपेटा लगानेवाली यह पुस्तक है। अब सोचना चाहिये कि प्राचार्य कहानेवाले कौन हैं ?, सागरानन्दसरि । नो बस इसका मार्मिक-अर्थ समझलो कि पर For Private And Personal Use Only Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१०) मार्थनः उक्त पुस्तक उन्हींके मुख पर चपेटा लगानेवाली है। वाह वाह वापा ! : कैसा सुंदर चमत्कारपूर्ण मार्मिक-अर्थ । यह तः वही कहावत लागु पड़ी कि 'जिसकी लाठी उसीका शिर ।' लेखक की बेसमझी___“आज कल के लेखकों में यह बड़ा भारी दोष पाया जाता है कि वे कत्ता के सिद्धान्तों ( मन्तव्यों ) को विना समझे ही टॉय टाँय फिस् के घोड़े दौड़ाने लगते हैं और इस निबल से निबल घुड-दौड़ से आश्विर उनके लिये पलायन का डंका बजने लगता है । फिर वे पीछे से अपने सहायकों समेत गोड़वाड़ की अंधगुदड़ी का सहारा लेकर चाहे कितना भी उन्मत्त-प्रलाप करें, पर उन कायगें की आह पर कोई भी मभ्य ध्यान नहीं देता।" इसी नीति का अनुकरण चपेटिका के लंग्वकने किया है । वह जिस चमत्कार पूर्ण पुस्तक के विषय में अपनी आँते उंच चढा कर, उन्मत्त-प्रलाप कर रहा है, उसके कता का कथन क्यः है ? उसने जनता के सामने किस मन्तव्य को रक्खा है ? उसकः प्रतिपादन किस प्रतिपादा-विषय के लिये है ? और उम्मका यह प्रयत्न किस व्यक्ति के लिये हुआ है ? इन बातों का पता चटिका के लेखक को अभी तक नहीं लगा। इसीसे उसके मारे प्रलाय. सारं अंडवंड लेख और सारे कुटिल उपाय टॉय टाँय फिस् का रूप धारण कर लेते हैं। ठीक ही है-"निर्बलस्य कुता बलम्।" हमारा मन्तव्य ..." वर्तमान काल में भगवान श्रीमहावीरस्वामी का For Private And Personal Use Only Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (११) शासन है जो कि इक्कीस हजार वर्ष पर्यन्त बराबर चलता रहेगा। अतएव वीरशासन को मान्य ग्खने वाले साधु, साध्वियों के लिये वेत, मानोपेत, जीर्णप्राय और अल्पमूल्य वस्त्र ही रखने की जैनागम और प्रामाणिक-ग्रंथों की आज्ञा है।" २-" यनि शिथिल हुए उनसे जुदा भेद दिखलाने के लिये वस्त्रों का वर्ण बदल कर लेना चाहिये, एसी अाज्ञा किसी जैनागम और प्रामाणिक जैनग्रन्थों में नहीं है। इसलिये गाड़ी वाड़ी लाड़ी के प्रेमी यतियों की शिथिलता को अपवाद मानकर वस्त्रों का वर्ग बदल करना अनुचित और शास्त्र-मर्यादा से रहित है । " ६. श्वेतवस्त्रों के न मिलने पर कदाचित कहीं केशरिया या पीला वस्त्र मिले, नो साधु साध्वी उसको वर्ण बदल करके अपने काम में लेवे ऐसी श्राचार्यों की आचरणा है, लेकिन प्राप्त श्वेत वस्त्र के वर्ण को बदलने की आचरणा नहीं है।" .. ४" वर्ण परावर्तित-वस्त्र विषयक शास्त्रों में जो जो कारगा बतलाये गये हैं उनमें का वर्तमान में कोई भी कारण उपस्थित नहीं हैं. । अतएव वर्तमान में शास्त्रोक्त कारणों की अनुपस्थिति होने से रंग हुए वन रखना और वस्त्रों का रंगना अनुचिन ५-" शास्त्रों में पांच प्रकार के वनों का जो स्वरूप बताया गया है उनमें 'पञ्चविधे वस्त्रे प्ररूपितेऽपि उत्सर्गतः कार्पासिकौणिक एवं ग्राह्यते । ' टीकाकारों के इस कथन से कपास के For Private And Personal Use Only Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( १२) बने हुए सूति और ऊन के बने हुए ऊनी; ये दो जाति के श्वेत वस्त्र उत्सर्ग से साधुओं को ग्रहण करने योग्य हैं और इनकी अप्राप्ति में शेष तीन जाति के वस्त्रों का ग्रहण आपत्रादिक है। वर्तमान समय में सूत और ऊन के कपड़े सर्वत्र मिलना सुलभ हैं, अतएव साधु साध्वियों को शेष तीन प्रकार के श्रापवादिक वस्त्र लेने की कुछ भी आवश्यक्ता नहीं जान पड़ती।" पाठक महानुभावो ! उपरोक्त मन्तव्यों में से शुरुआत के दो मन्तव्यों के लिये शहर रतलाम में मुनिकपुरविजयजी के मार्फत सागरानंदसूरिजीने शास्त्रार्थ करने की मांगणी की, जिसकी उनको मुद्रित प्रतिज्ञा-पत्र के साथ मंजूरी दी गई थी। लेकिन प्रतिज्ञा-पत्र से घबरा कर उनने ( सागगनंदसूरिने ) शास्त्रार्थ के रूपक को हेन्डविलों के रूप में परिणत किया। इसी रूपक को लक्ष्य में रख कर दोनों तरफी हेन्डविल निकलने के दरमियान में ही चपेटिका के लेखक महाशय अखीर में टॉय टॉय फिम बोल गये । हेन्डबिल किसने रोकाये ? શહર રતલામમાં જૈનચર્ચાનું પરિણામ– લગભગ સાત મહીનાથી રતલામ (માલવા) શહેરમાં શ્રી શ્રી ૧૦૦૮ જૈનાચાર્ય ભટ્ટારક શ્રીમદુ-વિજયરાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજના શિષ્ય વ્યાખ્યાનવાચસ્પતિ શ્રીમાન યની દ્રવિજયજી १ इस शास्त्रार्थ का पूरा इतिहास जानने की इच्छावाले सजन महानुभावों को रतलाम में शाखार्थ की पूर्णता' और ' शाखार्थदिग्दर्शन' नामकी दोनों किताबें आद्योपान्त वांचना चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #16 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir મહારાજ અને શ્રી શ્રી ૧૦૦૮ આચાર્યજી શ્રી સાગરાનંદસૂરિ જીની વચ્ચે સાધુને જૈનશાસ્ત્રોના હુકમ પ્રમાણે ધેલાં કપડાં પહેરવાં જોઈએ કે પીલાં (રંગેલાં) પહેરવાં જોઈયે? તેની ચર્ચા ચાલતી હતી, તેમાં શ્રીમાન યતીન્દ્રવિજયજી મહારાજે પ્રાચીન અર્વાચીન જૈનશાસ્ત્રોના પ્રમાણપાઠ, સાક્ષર જનસમાજ આગલ હેન્ડબિલ દ્વારા આપી જેનસાધુ સાથ્વિને વર્તમાન કાલમાં સનાતન રિવાજ પ્રમાણે વેત વસ્ત્રો ધારણ કરવાં, પીલાં લાલ વગેરે રંગીન નહિં, એમ સિદ્ધ કરી બતાવ્યું છે. શ્રીમાન સાગરાનંદસૂરિજીને હેન્ડબિલ દ્વારા સૂચના આપી હતી કે––અપવાદથી સાધુઓને પીલા વસ્ત્રો રાખવા, એવી રીતે આપ કહો છે તે તેની સિદ્ધિ માટે શાસ્ત્ર પ્રમાણ જાહેર કરે, પરંતુ અત્યાર સુધીમાં તેમના તરફથી કોઈ પણ પ્રમાણ જાહેર થયું નથી, તેથી સ્થાનકવાસી, દિગંબર વિગેરે આમ રતલામના લેકેમાં જણાઈ આવ્યું છે કે શ્રીમાન સાગરાનંદસૂરિજી પાસે કલ્પિત વેશની સિદ્ધિ માટે કોઈ પણ શાસ્ત્ર પ્રમાણ છે જ નહિં. મુનિરાજ શ્રીયંતીન્દ્રવિજયજી મહારાજના શાસ્ત્રીય પ્રમાણ વાલા હેન્ડબિલોથી ગભરાઈને પોતાની પાસે કંઈપણ પ્રમાણ આપવાનું ન હોવાથી આવા કેટલાક ગાલી-ગલેજના હેન્ડબિલે. કાઢયા પછી જ્યારે ડોસા (સાગરજી) એ જોયું કે રાજ્યનું શરણ લીધા વગર સામા પક્ષના પ્રમાણોના હેન્ડબિલો બંધ થશે નહિં. ત્યારે શ્રીમાન દિવાનસાહેબ સ્ટેટ રતલામના પાસે હેન્ડબિલે બંધ કરાવવા અરજ કરાવી. દયાળુ શ્રીમાન દીવાન સાહેબે ડોસા (સાગરજી ) ની અરજ ધ્યાનમાં લઈને દીવાળીના દિવસે શ્રી જજ સાહેબ સ્ટેટ રતલામને મહારાજ શ્રી યતીન્દ્ર વિજયજી પાસે અને સાગરજી પાસે મોકલાવી બે તરફી હેન્ડબિલ મુલતવી રખાવ્યાં છે. For Private And Personal Use Only Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (१४) ભાડુતી વીરશાસન પત્રમાં મારેલ કાન્તિદેવીને રાણગારવા જેવી જે હકીકત છપાયેલ છે તે બિલકુલ અસત્ય છે. કારણ કે સાગરજીના તરફથી નિકળતાં હેન્ડબિલેમાં તા. ૭-૧૦-૨૩ ના -इनिसमा २ थयु - शास्त्रो में स्थान स्थान पर सफेद कपडों का ही विधान है ' 1 3५२थी आने सा સાફ વિદિત થઈ જાય છે કે સાગરાનંદસૂરિજીનો ચચમાં પરાજય થઇ ચુક્યો છે અને શ્રીમાન યતીન્દ્રવિજયજી મહારાજને જય થયે છે. વિશેષ ખુશી થવા જેવી વાત એ છે કે શ્રી સાગરાનંદસુરિજીએ પોતાના શરીર ઉપર પહેરાતા વસ્ત્રોમાં પણ સંદ વસ્ત્રને મુખ્ય સ્થાન આપવા શરૂ કરી દીધું છે. से० विध्य. हिदुस्थान, ता. १२ १२ सन् १४२३, -10 __ पाठको ! विवेकचन्द्र नामक किमी व्यक्ति के दिये हुए दुपगेन दैनिक-पत्र के लेखसे स्पष्ट मालूम पड जाता है कि ?-" महाशय सागगनंदमूरिजीने अपनी असमर्थता के कारण आजीनी और प्रयत्न करके रतलाम में दीवानमाहब के द्वाग हन्डविल ग्वुद बंद कगये." २- अपनी मृत-कीर्ति को मिणगारने के लिये भाडंतु वीरशासन में झूठे लेख अपनी बहादुरी बताने को छपवाये और ३--" निज मन्तव्य की सिद्धि के लिये पबलिक आम में कोई भी शास्त्रीय प्रमाण पेश नहीं किया ।" श्राप जान सकते हैं कि दोनों के हेन्डबिल बंद कगने में भी सागरजी की छिपी हुई क्टनीति है । वह यह है कि-पदि दोनों तरफी हेन्डबिल बंद रखवाने का हुक्म जारी हो जायगा तो लोग जान For Private And Personal Use Only Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लेवगे कि हन्डबिलों को निकालने के लिये गज्य के तरफ से दोनों को मनाई की गई है । अब जग सोचना चाहिये कि टॉय टॉय फिस होने में क्या बाकी रहा ?, कुछ भी नहीं ! ! दर अमल में चपेटिका के पिशाच-पंडिताचार्यने इसी टॉय दीय फिस को छिपाने के लिये अब फिर गुड़गुड़ाना शुरु किया हैं और उसके नमूने रूप में अपनी हार्दिक--मलिनता का सारा गुब्बार यटिका के दाग खुला कग दिया है। जिसके वांचने से उनकी पिशाचना का पूरा पता लग जाता है । ठीक ही है कि ' बहता हुया मनुष्य जल तरंगों का भी सहारा लेकर विराप पाता है। જ શાસનરક્ષા મત્તા?— ઈન્દ્રિઓના ગુલામો, દ્રવ્ય, પુસ્તકો અને પદવીઓ માટે મરી પડનારા વંદાવા માટે. પુજાવવા માટે, સામૈયા માટે અને શી મેળવવા માટે અથાગ પરિશ્રમ કરનારા દાંભિક ગુરૂઓ પોતાના આશિત ભકતોને સ્વર્ગ કે મે પહોંચાડવાનો ઈજારો લઈ બેઠેલાઓ કે તેને જયારે કોઈ શ્રીમતી શેઠાણી વાંદે છે અને સ્વામી શાતા છેજી, ભાત પાણુને લાભ દેજોજી” એ વિશ્વ પરંપરા ની અવાજે કરે છે ત્યારે આ પંચમકાલના બ્રહ્મચારી ગુરૂબાપલીઆઓની અંતરની શાતાને ગલગલીયાં થાય છે અને દુખલાભ લેવા દેવાના ઉમળકાઓ લે છલ ભરાઈ આવે છે. પામરને જ ચેલપટ્ટાઓ છેવા પડે છે અને યાકતીઓ ખાવી પડે છે. એમનાં સૃષ્ટિ વિરૂદ્ધ કૃત્યે જે ઉઘાડા પડે તો તેમને શું શિક્ષા થાય એ કાયદા શાસ્ત્રીએ જ જાણી શકે, આમ છતાં બીજાઓને શિક્ષા કરવા કરાવવામાં પોતે For Private And Personal Use Only Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ૨૬ ) 'મ ન્યાયાધીશ બની બેસવામાં અને પાતાને ચાથા આરાના નમુના તરીકે એળખાવવાને પણ તૈયાર જ હાય છે. + + -+ + + + ખીજાના અપક્ષ વયના અને અપકવ સમજના બાળકોને ચારી છુપાવી નસાડનારા ગુરૂઆાપલીઆઆને ચાટ્ટા કહેવાય નહિં. ચાટ્ટા કહેવામાં આવે તે કાળાનાગની જેમ ખીજાઇ ધાળે દહાડે લુટ કરનારા એ દાંભિક લુંટારાએ વળી શાહુકારનાવાણીયાના ગુરૂદેવના લેવાસમાં ઉજળા માટે નિર્ભય રીતે કરે છે. દ્રવ્યના ચારને શિક્ષા ગવર્મેન્ટ કરે છે તા બાળકાને ચારનારાએની એથીએ વધુ વલે કરવી જોઇયે પણ જ્યાં ગુરૂદેવની ભક્તિ કરવામાં સિદ્ધેસિદ્ધા સ્વર્ગે પહોંચાડવાનુ` બીડું ઝડપનારા હાય ત્યાં શ્રદ્ધાળુ ભક્તો એ ગુરૂએના બચાવ માટે શું ન કરે ? શ્રદ્ધાળુ શ્રીમા શીષ્ય લાભી ગુરૂએના સાગરીત ન બન્યા હોય તે આજે એમાંના ઘણા બાળક ચાર ગુરૂઓ જેલાત્રા કરી રહ્યા હાય અને દળવાના યંત્રપર સગીત કાઢી રહ્યા હાત. ઘણું જીવા એ સાગરીત શેઠીયાએ તેમણે જૈનધર્મને વગેાવાતા અટકાવ્યે પણ ગુરૂષાપલીઆની આદતને ઉત્તેજન આપ્યું અને એવા ગુન્હાઓને ગુન્હા જ ન ગણાય એવુ માનતા કરી મૂકયા, આવા દાંભિકગુરૂએના ઉજળા પ્રકરણા હાર પડે તો જૈનાને દુનિયામાં હલકા દેખાવું પડે. છતાં એમાંના દાંભિકાએ જ પરસ્પર લડીને એકબીજાના છીદ્રો તદન ચોખ્ખા રૂપમાં પોતે પડદાબીબી બની. બીજાઓને હથીયાર બનાવી જાહેર પેપરોમાં ખુલ્લાં કરી દેશે છતાં કાલે તેનાપર પડદા નાખવાથી અને વાત વિસારે પડવાથી વળી તેઓ લેાકયના ઉદ્ધારક હાવાના દાવા કરવા ફરતા થઇ ગયા છે. પડિત અ’સીલ લ સામનલાલ, કુંભારવાડા, બમ્બઇ, For Private And Personal Use Only Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ૭ ) જ્યાં લાલીયા ઘણાં ત્યાં ધૂતારા ભૂખે ન મરે એ કહેવત પ્રમાણે દક્ષિણપ્રાંતનેા જૈનસમાજ સત્સાધુના વચનામૃતનું પાન કરવા લેાભાયેલા છેજ ? તેવે સ્થળે ભ્રષ્ટાચારી-તારાઓને ફાવે તેમાં નવાઈ શી ? અને પીતવસ્ત્રધારી ઢોંગીઓના આગમનથી સારા ક્રિયાપાત્ર મુનિજના ઉપર અશ્રદ્ધા થાય, તેમના અયેાગ્ય વત્તું નથી જૈનપ્રાને નીચું ઘાલવુ પડે, પવિત્ર મુનિનેશની યા જૈનશાસનની નિ ́દા થાય એમાં આશ્ચર્ય શુ ? આઠ દશ વર્ષથી આવા લેાકેા અત્રે આવવા લાગ્યા છે, એટલા અરસામાં આશરે ૭-૮ પીતવસ્ત્રધારી-ભ્રષ્ટાચારી આ દેશમાં ફરી વળ્યા છે. જેમાનાં બે જણાના કૃષ્ણકારસ્થાના જૈન એડવાકેટ પેપરદ્વારા આગળ આવ્યા હતા છતાં હજી તેવા ઢોંગીઆ આ દેશમાં ફ્રી શ્રાવકાના માન અને દ્રવ્યને લૂટી પોતાની ઇચ્છાએ તૃપ્ત કરે છે અને પાછા ઉજળા બનવા જાહેરપત્રામાં વર્ણ ના પ્રસિદ્ધ કરી પાતાની મેહાળ ખીજા ઉપર નાંખવા ઇચ્છે છે. તા તે કેમ અને ? કાકપક્ષી 'સનુ ચામડુ આઢી પોતે હુંસ હાવાનું કહે તેા જ્યાંસુધી તેની પેાલ મહાર નહિં પડે ત્યાંસુધી તેને ક્ષીરનું ભાજન ભલે મળે પણ તેનુ પોકળ ઉઘાડું થયા પછી જો તેને પથ્થરના માર પડે તા સુજ્ઞજન તેને અયાગ્ય ગણશે નહિ, જૈન પુ॰ ૧૫ અંક ૩૪ તા. ૬-૯-૧૭. પાંચમા નંબર ભાઇ ત્રીકમલાલ ચુનીલાલના આવે છે. તેમના કુટુ અમાં વીશ વર્ષની તેમની સ્ત્રી રતન તથા વૃદ્ધમાતા જમનાબાઇ છે. તેમણે ઘણાં કલ્પાંત કર્યાં, વિનંતીએ કરી, ખેાળા પાથર્યા અને પેાતાના જીવનહારને હરી ન લેવાને મહુ For Private And Personal Use Only Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (૨૮) બહુ પ્રયત્ન કર્યો, ત્રણ ત્રણ દિવસ વિદ્યાશાળાને આંગણે આજીજી કરી પરંતુ કઠણ કાળજ્યાં ન પલળવાથી છેવટ શ્રાવણ સુદ ૧૧ ( તા. ૧૯-૮-૨૬) સાંજના સાત વાગે બાઈ રતન લાલ થઈ મારા ધણીને સેપોએ હૃદયવેધક ભાવના વચ્ચે ઉપાશ્રયમાં મહારાજને શેધવા દોડી. સેંકડો માણસ એકઠું થઈ ગયું અને જોતજોતામાં તેફાન વધી ગયું, કોઈએ આસપાસના સરકારી દીવા એલવ્યા, રાડો-પડકારા થવા લાગ્યા, ઉપાશ્રયમાં જતાં કે સાધુ જ ન મળે તેમજ ભક્ત પરિવાર પણ ખસી ગયો હતે. બધું કયાં અદશ્ય થયું તે શોધવું મુશ્કેલ થઈ પડે, પરંતુ બાઈએ તે પતિદર્શનના પણ (સોગન) લીધા હતા તે કેમ ખમે ? આસપાસ તપાસ શરૂ થઈ શાંતિનાથ પિળને પત્તો મળતાં સે ત્યાં દેડ્યા; પરંતુ ત્યાંથી કસું બાવાડાના વાવડ મળતાં ત્યાંથી ત્રીકમલાલનો પત્તો મળી જતાં તેમના ધર્મપત્નિ સાથે રાત્રે ઘરે ગયા ત્યારે સૌ જંપીને બેઠાં. આ રીતે ઘીના ઠામમાં ઘી પડી ગયું છે, ત્યારે તા. ર૩૮-૨૬ સેમવારે શ્રી રામવિજયજી મારા તથા બીજા બે થાણા વિદ્યાશાળાએથી નીકળીને ઝાંપડાની પોળમાં શા. ચમનલાલ કાળીદાસને ત્યાં ગયા હતા. અહીં સરકારી અધિકારી હતા અને તેમણે રામવિ. મા. ને કંઈ પુછપરછ કરી (જુબાની લીધી ) તેમ સંભળાય છે. આ વળી નવું શું જાગ્યું છે તેના તે સાચા ઘટ દેવળે વાગશે, બાકી અત્યારે તે આખું અમદાવાદ આવા ચાલુ તોફાનેથી વાહી ત્રાહી પિકારી ગયું છે. છતાં ટ્રસ્ટી મહાશયે ઢાંકપીછોડો કરે ત્યાં સુધી ભાગ્યના ભેગવ્યે જ છૂટકે. જેને પુત્ર ૨૪, અંક ૩૫ તા. ૨૯ ઓગષ્ટ સને ૧૯૨૬. મુનિ મહારાજ રામવિજયજી અમદાવાદમાં ત્રણ ચાર વર For Private And Personal Use Only Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ૧ ) સથી રહી તેમણે શું શું મૃત્યા કર્યા છે તે અમે નીચે લખ્યા પ્રમાણે જણાવીએ છીએ-~ ૧ પાડાપેાળવાળા શાહુ ડાહ્યાભાઈ સકરચંદના છે.કરાને નસાડેલા તે બાબત તે છેકરાને અને તેના માબાપને પુછો તો મહારાજ સાહેબ છેાકરાને કેવી રીતે નસાડે છે અને કયાં કયાં રાખે છે. તેમજ તેમના ભાવી ભક્તો ાકરાઓને નસાડવા કેવી રીતે મદદો કરે છે તેમ તે છેકરાઓના ઘરમાં તેમના માબાપે કેટલા ક્લેશ તથા કેટલુ નકામુ ખરચ કરે છે તે તમામ હેવાલ ધ્યાનમાં આવશે તેવી જ રીતે ધના સુતારની પાળવાળા વૈદ શકરાભાઇ પુરૂષોત્તમદાસના છેકરાને શેઠ ચીમનલાલ નગીનદાસની એન્ડિંગમાંથી કેવી રીતે ભગાડેલા અને કેવી રીતે પાછા . આવ્યે તેમજ મહારાજ રામવિજયજીના ભાવી ભક્તોએ કેવી કેવી મદદા કરેલી છે તે તમામ હેવાલ છેરાની તથા તેના બાપની સહી સાથે જૈનપેપરમાં તા. ૨૧ નવે ખર સને ૧૯૨૪ ના અંકમાં હરણ તથા તા. ૨૮ મી નવેમ્બર સને ૧૯૨૪ ના અંકમાં પાને ૭૪૯-૭૫૦ અમારા અમદાવાદને પુત્ર તથા અમારી પત્રપેટી તથા તા. ૪-૧-૧૯૨૫ના અંકમાં પાને ૬ અમારી પત્રપેટીમાં ચદુના બીજો કાગલ તથા તા. ૧૧-૧-૨૫ના અંકમાં પાનું ૨૩ ભાઇ ચંદુના ખુલ્લા પત્ર તથા તા. ૨૫-૧--૨૫ ના અંકમાં પાને ૪૭, ૫૭ અમદાવાદના પત્ર ભાઇ ચંદુના બાપના પત્ર ઉપર પ્રમાણેના જૈન પેપરના અંકમાં છપાયેલા છે. www. 1***SS .... ... 1004 .... તેમજ શામલાની પાળવાલા સાંકલચંદ મેાહુકમચંદના કરાને તથા હાલમાં પતાસાની પોલવાલા મેાદી મણીલાલ મગનલાલના છોકરાને ટેબલાની પેાલવાલા શાહુ મફતલાલ For Private And Personal Use Only Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir દિનિકલ (૨૦) મગનલાલના છોકરાને કેવી રીતે નસાડેલા તે બાબતની આપ શેઠ સાહેબને તે છોકરાઓના બાપને તથા તે છોકરાઓને બોલાવી પુછી પુરતી તપાસ કરશો એવી અમારી નમ્ર વિનંતી છે કારણ કે ગરીબ માણસોને ઘરમાં આવા કુટુંબની તથા તેમના મા બાપની આંતરડી કકલાવે છે તેમ આવા બનાવો બનવાથી અપાસરા આગલ કેવા ધાંધલ થાય છે ? ..... ... ... ... ... ... નિક-પ્રભાત તા. ૧૫--૨૬ અમદાવાદ રતનલમાં નગરશેઠ કુટુમ્બના શેઠ ચમનલાલ ભેગીલાલના બને ભત્રીજા કે જે બંને નાની ઉમ્મરના છે તેમના નામ શેઠ કસ્તુરભાઈ અને કલ્યાણભાઈ છે અને તે બંને સગીરેના વાલી અમદાવાદના મહેરબાન ડીસ્ટ્રીકટ જજ કોરટથી ડેપ્યુટીનાજર મી. ચીમનલાલ બહેરારદાસને નીમવામાં આવેલા છે આ બંને છોકરાઓને દીક્ષા આપવાના ઈરાદે મુનિ શ્રી રામ વિજયજી તરફથી તેમજ તેમના રાગી શ્રાવકો તરફથી નાગપુર ખસેડવાની યુકિતઓ રચાયેલી હોય એમ લાગતા વલગતાઓને ખબર પડવાથી તાબડતોબ હાલ તુરત તે તે બને છેકરાઓને કબજે રાખવા કોશીષ કરી ને હવે પછી આ બંને છોકરાને દીક્ષા આપવા કે અપાવવામાં અગર તે નસાડવામાં ન આવે તેવા હુકમ મેલવવા અમદાવાદના મહેરબાન ડીસ્ટ્રીકટ જજ સાહેબને અતરેના ડેપ્યુટીનજરે રીપોર્ટ પણ કરેલાનું સંભલાય છે. જેન પુર૪, અંક ૩૫ તા. ૨૯ ઓગષ્ટ સને ૧૯૨૬, श्रो ! ! वापा ! वस वस बहुत हुई, बंद करो, व्यर्थ हमारी ढोल जितनी छिपी हुई पोल का परदा खोल कर क्यों शरर्मिदा बनाते हो । अरे वापा इसी काली लीला को परदे में रखने के लिये For Private And Personal Use Only Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२१) मो हम पिशाचपंडिताचार्यों और उनके गुलाम अन्ध-सेवकोंने अपवाद को पछेडी अोढी है । धोल किया भगवंत-महावीरशासनानुयायियों के शरण में रहने से नो हमको इस प्रकार की मौजशौख मिल नहीं सकती और न उनमें उक्त लीलाओं का गुब्बार छिपा या दवा रह सकता है। इससे हमारे अपवाद की पछेडी ऐसी प्रभावशाली है कि जिस के सहारे या पक्ष से हमारी सारी मनमौजे विना भय के ही घट सकती हैं । अस्तु, अपवादसंवकाचार्य चाहे जितनी मौज लूट इससे हमे कोई मतलब नहीं । ____ पाठको ! अब हम आप लोगों से पूछते हैं कि-भिन्न भिन्न भवभीरू शासनप्रेमी-विद्वानों के तरफ से प्रकाशित ऊपर दिये हुए न्यूसपेपरों के निकरों में आलेखित लीलायें शासन की रक्षक हैं कि भक्षक ? इस प्रकार की अपवादियों के घर की कुटिल करतूतों (लीलाओं ) से शासन की रक्षा होती है कि शासन की निन्दा ? इन बातों का उत्तर ना के सिवाय आप कुछ भी नहीं दे सकते, तो इस बात को सामान्य बालक भी निःशंसय कह सकता और समझ मकता है कि वस्तुतः भगवान महावीर के निष्कलंक शासन को अपनी हार्दिक मौज मजाहों की पूर्ति के लिये ही अपवाद का शरण लेकर पीले, केशरिया या काथिया रंग के वस्त्र धागा करके कलंकिन बनाया गया है। शिथिनाचारी आधुनिक यति नाम बारियों के गाड़ी वाड़ी लाडी के प्रेम से भी सेकड़ों अंश में अपवादी. पीतवत्रधारी या उसके हिमायती पिशाचपंडिताचायौं का गाडी वाडी लाडी का प्रेम For Private And Personal Use Only Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२२) अधिक बढ़ा चढा हुआ नजर आ रहा है । जिसके प्रमाणभूत ऊपर दिये हुए गुनराती पेपरों के फिकरे साक्षी स्वरूप समझना चाहिये। सबब कि विचारे आधुनिक यति तो " हम साधु नहीं, परीग्रह धारी हैं, हमारे में साधुओं के प्राचार-विचारों की गंध तक नहीं है।" ऐसा खुद अपने मुंह से जाहिर कर रहे हैं, इससे उनमें और कुछ नहीं तो धार्मिक निष्कपटता तो पाई जाती है। परन्तु अपवाद का आश्रय लेनेवाले पिशाचपंडिताचार्यों के हठाग्रही गुरुत्रों में तो उतना भी गुण नहीं है। आखिर मान लेना पड़ा "यह एक कुदरती नियम है कि संसार में बे मनुष्य जो सत्य के द्वेषी, असत्य के प्रेमी मताग्रही और अपवाद के शरणाग्न हैं । सत्य के वन्नमय दृढ़ किल्ले को तोड़ने के लिये जब अपरिमित हुल्लड, अपरिमित भोपा-धूण और अपरिमित हृदय की मलिनताओं को भी अपनी काली कीर्ति का हथियार बना करके वन्नमय सत्य के किल्ले को तनिक भी नहीं खिसका सकते । तब वे विवस होकर अंत में या तो अपने हृदय की मलिनता जाहिर करके, या असली बात को रूपान्तर से मंजूर करके सुख मान बैठते हैं और फिर वे लोगों में अपनी बहादुरी दिखाने के लिये गुनगुनाया करते है । जैसे कि अतिस्वच्छ रजनी में जुगनु (खद्योत ) का चमत्कार ।" इसी प्रकार चपेटिका के लेखक महाशय और उनके पिशाचपंडिताचार्यने वीरप्रभु के शासन में जैन मुनिगजों को सफेद कपड़े ही रखना चाहिये, इस शास्त्रीय कथन के सत्य किल्ले को तोड़ने के For Private And Personal Use Only Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (२३) लिये शक्तिभर प्रयत्न भी किया, अन्धभक्तों में उस्केरणी भी की, अपनी मनोमलिनता को भी उगली और गज्य का भी शरण लिया; तथापि उनको सत्य के किल्ले को तोड़ने से मजबूर (लाचार) होना पड़ा और अन्त में उनको चपेटिका के तमाचे सह करके निर्विवाद चपेटिका के द्वाग ही मान लेना पड़ा कि--- "रंगीन कपड़े पहिननेवाले रंगीन कपड़े के आग्रही नहीं है, और न वे लोक महावीर महाराज से ही रंगीन पहिनने का ही नियम था ऐसा मानते हैं. न रंगीन में ही धर्म है ऐसा मानते हैं। " चपेटिका-पृष्ठ ३, पंक्ति ६. महानुभावो ! समझलो कि चपेटिका के इस उद्गार (लेख) से कैसी स्पष्ट बात जाहिर हो जाती हैं । वह यह कि " महावीर प्रभु से वस्त्र रंगने का या रंगीन रखने का नियम नहीं था, इसलिये रंगीन कपड़े रखने में धर्म नहीं है " ऐसा हम (अपवाद को माननेवाले ) अाग्रह रहित हो करके मानते हैं इसके लिये आप लोग हमारे पीछे क्यों पड़े हैं। अगर चपेटिका के वाक्य को लक्ष्य में रखकर विचारा जाय तो-'न वे लोक महावीर महाराज से ही रंगीन पहिनने का ही नियम था ऐसा मानते हैं ' अर्थात् अपवाद के हिमायती लोग वीरप्रभु के शासन में रंगीन कपड़े पहनने का नियम नहीं मानते । इसलिये 'न रंगीन में ही धर्म है ऐसा मानते हैं' अर्थात्रंगीन कपड़े पहिनने और रखने में धर्म नहीं है । अतएव 'रंगीन कपड़े पहिननेवाले रंगीन कपड़े के आग्रही नहीं है ' अर्थात् For Private And Personal Use Only Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २४ ) रंगीन कपड़ों का आग्रह न रख कर विवर्ण ( रंगीन ) वस्त्र पहिन - नेवाले श्वेत वस्त्र में ही धर्म मानते हैं। इस फलितार्थ से भी वही बात जाहिर हुई जो ऊपर दिखलाई जा चुकी है । हमे आश्चर्य है कि जब चपेटिका के लेखक और उसके पिशाaisaार्य को रंगीन कपड़े पहनने का और रंगीन में धर्म मानने का आग्रह नहीं है तो व्यर्थ ही में क्लेश बढ़ाने के लिये चपेटिका को प्रसिद्ध कराके प्रतिचपेटा खाने का अभिलाष या प्रयत्न क्यों किया गया ? इस अभिलाष या प्रयत्न का नाम आग्रह ( हठाग्रह् ) नहीं तो और क्या हो सकता है ?, कुछ नहीं । जमाना बदल गया (1 इस बुद्धिवादगम्यमय जमाने में बाबा वाक्यं प्रमाणम की छिपी धूर्तता का किला अब खड़ा नहीं रह सकता । श्रत्र तो उन्हीं बातों को स्थान मिल सकता है जो शास्त्रीय प्रमाण- पाटों के सत्य वाणों का तृगीर जिनके हाथ में हो । " चपेटिका के लेखक को भी विवस होकर जिन सफेद कपड़ों. का महावीर शासन में अस्तित्व मान के उसमें धर्म मंजूर करना पड़ा है। उसी की सिद्धि के लिये जैनागम और प्रामाणिक जैनग्रन्थों के प्रमाण - पाठ पवलिक ग्राम में हिन्दी अनुवाद के सहित जैन पिटनिर्णय नामक पुस्तक के द्वारा प्रकाशित ( जाहिर ) हो चुके हैं, जिनके लिये अनेक विद्वान् और पत्र संपादकों के अभिप्राय - पत्र उपस्थित हैं जो आवश्यकता पड़ने पर प्रकाशित होंगे | भक्तों को भी इसी प्रकार पिशाचपंडिताचार्य और उनके For Private And Personal Use Only Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org 27 Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २५ ) 3 चाहिये कि ' गाड़ी वाड़ी लाड़ी के प्रेमी यतियों की शिथिलता अधिक हो जाने से महावीर शासन के अनुयायी जैन साधु साध्वियों को रंगीन कपड़े पहनना चाहिये । इस बात की सिद्धि या ऐसा ही सिद्ध करने के लिये अगर कोई भी प्रामाणिक शास्त्र का प्रमाणपाठ हो, उसको पबलिक में जाहिर कर देना चाहिये, जिससे कि पबलिक आम को पिशाचपंडिताचार्यों की सत्यता का पता लग जावे | वरना गाड़ी वाड़ी लाड़ी का प्रेम अपवाद पत्तावलम्बियों के ऊपर सवार हुए विना नहीं रहेगा । क्यों कि विन पायेदार मान्यता का शास्त्रीय प्रमाण दिये विना आधुनिक सभ्य समाज पर तनिक भी प्रभाव नहीं पड़ सकता । इससे खाली अपवाद अपवाद की माला फेरना निष्फल ही है, ऐसा सामान्य मनुष्य के भी समझ में भले प्रकार आ सकता है । परस्पर विरोधी लेख " उपधानिया मेवा और अपवाद की मौज में निमग्न मनुष्य मदमत्त या मदमत्त होकर जो कुछ लिखते या बोलते हैं, उसमें उनको परस्पर विरोधी लेख लिखने का भान नहीं रहता । ऐसे लोग जो कुछ मन में श्राया उसीको घसीट डालने में अपनी बहादुरी समझ बैठते हैं । इस बात के दृष्टान्त ढूंढने के लिये अधिक दूर जाने की जरूरत नहीं, इसका ताजा दृष्टान्त चपेटिका के वांचने से ही मिल सकता है जो अपवादियों की विचित्र अक्ल का एक नमूना है। चपेटिका के ११ वें पृष्ठ की प्रथम पंक्ति में पिशाचपंडिता For Private And Personal Use Only Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( २६ ) " चार्यने मंजूर किया है कि संवेगीलोकोने सफेद वस्त्र नहीं रखे ऐसा तो है ही नहीं " वाद में ऐहिक कामनाओं की पूर्ति के लालच में पडकर पृष्ठ १० वे की बीसवीं पंक्ति में लिख दिया कि टीकाकारने शुकु वस्त्र छोडने का कहा है इन दोनों लिखावट में परस्पर कितनी बिरुद्धता है ? इसको नवतत्त्व का जानकार लडका क्या उससे भी नीचे दर्जे का पढा हुवा बालक जान सकता है | भला ! जो लोग अपने पारस्परिक विरोधि लेखों को भी देखने या समझने की शक्ति नहीं रखते, वे अपवाद का आश्रय लेके केशरिया मेशरिया में लुभावें, इसमें श्रर्य ही कौन है ?; कोई नहीं । " (C Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir दरअसल में ऐसे लोग या पिशाच-पंडिताचार्य अपनी अपनी मलिन भावनाओं के वश होकर निष्कलङ्क शास्त्रों के अर्थो को मरोडने में भी कमी नहीं रखते और न उनको इस प्रकार के महान् अनर्थ के लिये कुछ भय ही पैदा होता है । ऐसे भवपिशाचग्रसित महानुभावों के अर्थ मरोड का भी एक नमूना देख लेना चाहीये । " चपेटिका के १० वे पृष्ठ की ७ वीं पंक्ति में श्री गच्छाचार लघुवृत्ति में से उध्धृत करके ८६ वीं ' जत्थयवार डियारां इस गाथा की सार्थ वृत्ति लिखी है कि ----- तथा यत्र च ' वारडिया ' ति, आद्यन्तजिनतीर्थापेक्षया रक्तवस्त्राणां ' ते कूडियाणां ' ति नीलपीतविचित्र भाति भरतादियुक्तवस्त्राणां च ' परिभोगः सदा निष्कारणं For Private And Personal Use Only Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २७ ) व्यापार: ' मुक्त्वा ' परित्यज्य शुक्लवस्त्रं यतियोग्याम्बरमित्यर्थः, क्रियत इति शेषः, का मर्यादा १ न काचिदपि तत्र गणे इति । - जिस गच्छ में प्रथम चरम शासन की अपेक्षा से लाल वस्त्र और नील पीत विचित्र तरह की भांत से भरे हुए वस्त्र का हरदम निष्कारण व्यापार करने में आवे, और साधु लायक शुद्ध वस्त्र छोड दिया जाय, तो उस में मर्यादा कौनसी रहे ? | देखिये ! टीकाकारने शुक्ल वस्त्र छोडने का कहा है। _________ महानुभावो ! आपलोगों की हार्दिक कुटिलता और उत्सूत्रता को अच्छी तरह देख ली । पाठको ! आप लोग भले प्रकार समझ सकते हैं कि संसार में अपने मत - पोपणार्थ कुलिंगी - भवाभिनन्दी लोग शाख- पाठों का अर्थ भी कैसा विचित्र कपोल कल्पित कर डालते हैं ? । भला ! उपरोक्त वृत्ति में ' शुक्ल वस्त्र छोडने को कहा है इस अर्थ के बोधक शब्दों की कहीं गंध तक भी है और शुक्ल शब्द का अर्थ शुद्ध ऐसा कहीं भी उक्त वृत्ति में ग्रहण किया गया है ? या कहा जाय कि नहीं, तो फिर पिशाचपंडिताचार्य को इस उत्सूत्रता के बदले में चपेटिका के प्रति चपेटा सिवाय दूसरा क्या दिया जा सकता है ?, नहीं ! नहीं दूसरा कुछ नहीं । ऐसे उत्सूचभाषियों को तो यहाँ भी चपेटा और वहां ( भवान्तर में ) भी चपेटा ही मिलेगा | खैर, परम्परायाही अपवादाभिलाषुक लोगों के हितार्थ गच्छाचारपयन्ना की उक्त लघुवृत्ति के पाठ का वास्तविक अर्थ यहाँ लिख दिया जाता है " जिस गच्छ में प्रथम चरम तीर्थंकर के शासन की For Private And Personal Use Only Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २८) अपेक्षा से साधुयोग्य श्वेत वस्त्र को छोडकर लाल वस्त्रों का और नील पीत विचित्र प्रकार के भाँत से भरे हुए वस्त्रों का हमेशा (निरन्तर ) निष्कारण परिभोग किया जाता हो, तो उस गच्छ में कौनसी मर्यादा है ?, कुछ भी नहीं।" वृत्तिकार महाराज के दिए 'सदा निष्कारणं व्यापारः' और 'परित्यज्य शुक्लवस्त्रं ' इन दोनों वाक्यों से ऐसा साफ जाहिर हो जाता है कि श्री ऋषभदेव और महावीर भगवान के शासन में जो साधुयोग्य सफेद कपड़ों को छोड के हमेशा पीत, नीलादि रंगवाले वस्त्र पहिनते हैं वे गच्छ मर्यादा से भ्रष्ट हैं और हमेशा सफेद वस्त्र रखनेवाले साधु गच्छ मर्यादा में हैं । " इससे उक्त वृत्ति-पाठ में " श्वेतवस्त्रधारी साधुओं को गच्छ मर्यादा वाला कहा और पीले नीले आदि रंगीन वस्त्रों के सदा परिभोग करनेवाले साधुओं को गच्छ मर्यादा से भ्रष्ट कहा है।" ऐसा निर्विवाद सिद्ध हुआ, परन्तु ऐमा न्यायसंगत शुद्ध अर्थ को विचारे पिशाचपंडिताचार्य करने लगे तो उनकी प्रापवादिक मागे पोपलीला का परदा ही फक् बोल जावे । ___ इसी प्रकार साध्वी विषयक गच्छाचारपयन्ना के वृत्ति---पाट के अर्थ में पिशाचपंडिताचार्य ने जितना कपोल--कल्पित प्रलाप किया है वह सब उन्मत्त--प्रलापवत् ही समझ लेना चाहिये । महानुभावो ! जैसा पेश्तर का संवेगी शब्द निज गुण के अनुसार अच्छे व्यक्तियों के लिये रूढ हुआ था, वैता वर्तमान में नहीं है । वात्तमानिक पिशाचपंडिताचार्य ने अपवाद के परदे में बैठे हुए अत्याचारों के For Private And Personal Use Only Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( २९ ) कारगा शुद्ध संवेगी शब्द को ऐसा नष्ट-भ्रष्ट बना डाला है कि जिसके सामने विगड़े हुए यति शब्द को भी लज्जित होना पडता है और हाथ में काले वावटे लेना पडते हैं । कुलिंगी मित्रो ! क्षमा करना, नाराज होने की कोई जरूरत नहीं, हमारी सत्य बोलने की आदत होने से हमारी कलमने भी उसका अनुकरण कर लिया है, इससे वह सत्य को दिखाने में विराम नहीं ले सकती | आप लोगोंने अपवाद के नाम की माला फेर कर बहुत दिन तक रंगविरंगे राज्य का मजा लूटा | पर छात्र जमाना बदल गया है, उसने तुम्हारी पोलमपोल की फाकंवाजी को चिरकाल तक सहन की । लेकीन कब उसने संभलकर आप लोगों की एक के पीछे एक कूटनीति को ढूंढ ढूंढ के सभ्य समाज की कसोटी पर चढाना शुरू कर दी है । अतएव आप लोगों को कहीं उसके तरफ से व अनन्त--संसार वृद्धि का खिताब न मिल जावे ? इस बात की सावचेती पूरे तौर से रखना चाहिये | कुलिंगियों की कुतकों पर विचार गे चलकर चपेटिका के लेखकने चपेटिका के पृष्ठ १२, पंक्ती १४ से समाप्ती तक वस्त्रधावन और रंजनवस्त्र विषयक जो हार्दिक बगलें निकाली हैं उनका भी पूर्वपक्ष सहित क्रमशः वास्तविक उत्तर सुनिये -- पूर्वपक्ष-धोना अपवाद से है तो फीर रंगने में उत्सर्ग अपवाद नहीं समझना यह अपनी मन हठ है या और कुछ ?, याने जैसे शास्त्रमें धोने का अपवाद कहा है बेसै रंगने में भी है, पृष्ठ - १२. For Private And Personal Use Only Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३० ) ! अपवाद से वस्त्र को धो लेने की उत्तरपक्ष- - महानुभाव आज्ञा शास्त्रों में दी हुई है, इससे उसे मनहठ नहीं कह सकते । मनहठ तो वही कहानी है जो शास्त्रों में दिखलाये हुए कारणों के सिवाय शास्त्रों की आज्ञा के बिना अपनी कपोल-कल्पना से यतियों की शिथिलता का बहाना लेकर अपवाद के नाम से केशरिया और पील किया की मौज उडाई जाय । वर्त्तमान में शास्त्रोक्त कारणों मैं का कोई कारण न होते हुए भी निष्कारण हमेशा पीले फेन्सी पहनना और कहना कि टीकाकारने शुक्ल छोडने का कहा है, बस ऐसी ही कूटनीति का नाम मनहठ समझना चाहिये । - हाथ पैर धोने में अपवाद गिने तो रंगने में क्यों नहीं पू०माने ? एवं इसीपाट से वस्त्र का रंगना उत्तर गुण में हर्जा डालता हैं, नहीं कि मूलगुण में या सम्यत्तत्व में । पृष्ठ - १४. ---- उत्तर प० - ज्ञानाशातना टालने के लिये अशुची से भरे हुए हाथ पैरों को धो लेने में शोभा नहीं है । शोभा है तो केशरिया, या पोले रंगीन वस्त्रों के निष्कारण हमेशा रखने में । सूत्रकृताङ्ग के नौवें अध्ययन की टीका के पाठ में उत्तरगुण की पेक्षा से शोभा के लिये हाथ पैर का धोना वरजा गया वह असंगत नहीं है । परन्तु विना कारण रंगीन वस्त्रों का हमेशा रखना तो शोभा का कारण होने से असंगत ही है । और जो यतियों की शिथिलता को आप लोग कारण बतलाते हैं वह शास्त्रोक्त न होने से मानने लायक नहीं हैं । प्रियवर ! जिस कार्य के लिये शास्त्रों की आज्ञा नहीं है उस कार्य को शोभा के निमित्त आचरण करना इसमें बडा For Private And Personal Use Only Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३१ ) भारी दोष जिनाज्ञा भंग है, जब जिनाज्ञा भंग हुई तो फिर मूल गुण और सम्यक्त्व रह ही कैसे सकता है ? इसको जरा अपवाद का परदा हटाकर सोचो । ठीक ही है कि वत्थिकम्म शब्द के अनुवासनारूप अर्थ को छोड़कर नख रोम आदि का समझ जानेवाले पिशाचपंडिताचार्य शुचि से भरे हुए हाथ पैरों को धोने में भी शोभा समझ लेवें तो कौन आश्चर्य है ? पू० -- ' जो धावत्सूसमतीव वात्थम । ' याने जो साधु वस्त्र को धोता है या काटकर छोटा करता है या छोटे को बडा करता है उसको संयम नहीं होता है ऐसा तीर्थकर और गणधर महाराज फर्माते हैं, पृष्ठ- १४. ---- उ -वस्त्र को प्रमाणोपेत बनाने के लिये फाड कर छोटा बडा किया जाय और नीलफूल आदि अनंतकाय की रक्षा के लिये उसको यतना पूर्वक चित्तजल से धो लिया जाय तो इसको तीर्थकर गंगाधर महाराजने असंयम नहीं कहा। असंयम कहा है इसको जो खास शोभा के लिये ही साधुओं के धोवियों के समान गड पट्टे लगा कर वस्त्रों को स्वच्छ किये जायँ और भवकेदार पीले केशरिया बनाये जायँ । वस्तुतः देखा जाय तो सूत्रकृताङ्ग के ७ वें कुशीलपरिभाषा अध्ययन का पाठ उन्हीं भ्रष्टाचारियों के लिये समझना चाहिये जो शोभादेवी के वास्ते अकारण को कारण बनाकर उत्सूत्र प्ररूपण करते हुए रंगीन झगमगाहट में आनंद मान रहे हैं । याद रक्खो कि धोने के लिये तो भाष्य और टीकाकार महाराजाओं की For Private And Personal Use Only Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आज्ञा मौजूद है, पर जिस कारण को तुम आगे रखकर रंगीन वस्त्र पहिनना चाहते हो उसकी आज्ञा नहीं है। पू०-जिनकल्पिक मुनि जो प्रस्वेद और मत्लाविल वस्त्रवाले होते हैं वे आपके हिसाब से बड़े ही जीवोपघात करनेवाले होंगे ? पृष्ठ-१६. उ०—जिनकल्पिक मुनि अतिशय और पुन्यराशिवाले होने से उनके प्रस्वेद और मलाविल वस्त्रों में नीलफूल आदि की उत्पत्ति नहीं होती । इसलिये उनको वस्त्र धोने की आवश्यकता नहीं पडती । परन्तु गच्छवासी स्थविरकल्पिक साधुओं में वैसे अतिशय और पुन्यराशि का अभाव होने से उनको वर्षाकाल बैठने के पेश्तर और ग्लानावस्था में अनंतकायजीवों की रक्षा के लिये अपने मलिन वस्त्रों को धो लेना चाहिये । देखो ! सूत्र की टीका का पाठ--- ___ गन्छवासिनो हि अप्राप्तवर्षादौ ग्लानावस्थायां वा प्रासुकदकेन यतनया धावनमनुज्ञातं, नतु जिनकल्पिकस्येति । आचारानसूत्र-शीलांकाचार्यटीका, १ श्रु०, ८ अ०, ४ उ०,, जरा आँखे खोल कर देख लो ! टीकाकार महाराजने कैसा उत्तम खुलासा कर दिया है ? इतने पर भी यदि हठाग्रह के वश न देख पडे तो तुम्हारे भाग्य की ही खामी है, इसमें दूसरे किसीका दोष नहीं है । ठीक ही है—जिनके कोर्स में, या भाडेती कोश में केवल अपवाद से वयों की ही भरमार है, उन्हें इन शास्त्रीय बातों को For Private And Personal Use Only Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३३ ) देखने या समझने की जरूरत ही क्या है ?, उन्हें तो खाली प वाद की माला से काम है । पू० -- मलमलिन वस्त्र से लोगों के चित्त में ग्लानी होवे उसको दूर करने के लिये वस्त्र धोना यह तो मंजूर है और अना चारियों से सारे शासन का खोज मिल जाय तब भी रक्षा के लिये वर्ण परावर्त्तन मंजूर नहीं ?. पृष्ट - १६. उत्त०. - महानुभाव ! मलमलिन वस्त्र से जीवोपघात और श्रोताओं ( लोगों ) के चित्त में ग्लानी होना स्वाभाविक है । यतः वैसे मलिन को धो लेना तो शास्त्रसम्मत है, इसलिये वह सब कोई को निर्वाद मंजूर करना पड़ता है । परन्तु यतिशिथिल हुए उनसे जुदा भेद दिखाने के लिये व परावर्तन करना शास्त्रसम्मत नहीं है, अतएव वर्ण परावर्त्त की शास्त्र-विहीन बात कैसे मंजूर की जाय ?, हां अलबत्तां इस बात को वे लोग मंजूर कर सकते हैं जो कारण को कारण मानकर शासन का खोज मिलाने के लिये रात दिन रंजनादि प्रवृत्ति में लगे रहेते हों । आजकल वर्ण परावर्तन की प्रवृत्तिने शासन का कैसा खोज मिलाया है ? इसको जानने के लिये इसी पुस्तक के ' यह शासन रक्षा के भक्षा' हैंडिंग के नीचे दिये हुए शासन-प्रेमियों के फिकरे वचना चाहिये और अव भी शासनप्रेमीयों के इस विषय में कैसे उद्गार निकल रहे हैं. उनको भी देखिये ! -- જેમ નાતરાંની છૂટ જે કામમાં હાય, તે કેમની સ્રીયા સ્વ 3 For Private And Personal Use Only Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३४) તંત્રપણે રહે છે. અને પતિ પ્રત્યે જે ભકિત હોવી જોઈએ, તે નથી રાખતી. કારણ કે તે એમ સમજે છે કે ધણું બહુ લપડ સપડ કરશે તે દુનિયામાં બીજા ઘણાએ તૈયાર છે એવી દશા આપણા સાધુ વર્ગની છે. છેવટે કોઈ સાધુ પાસે દાલ ન ગલે તો સ્વતંત્રરામ થઈને ફરે છે. કારણ કે જૈનસમાજ પલાંની પાછળ મુગ્ધ છે. પિતવસ્ત્રધારી અને એ મુહપત્તી રાખનાર દેખ્યા. એટલે આદરભાવ તૈયારજ છે. એવું પૂછવાની કે જાણવાની જૈન સમાજ ઓછીજ દરકાર કરે છે કે તમે કોણ? કોના શિષ્ય છે? કેમ એકલા રખડે છે ? સમુદાયથી કેમ છુટા પડ્યા છો? विगरे........ ____ -वर्ष ४ थु. २ ता. २०--१०-२१. पू०-चातुर्मास की श्रादि में जो धोने का लिखा है वह भी अनंतकाय की विराधना मलिन वस्त्र पर फूल लग कर होवे नहीं, इसी के लिये ही शास्त्रकारने प्राज्ञा दी है, लेकिन किसी भी जगह पर चौमासे के सिवाय धोने की और चित्त ग्लानी के कारण से वस्त्र धोने की आज्ञा है ही नहीं. पृष्ठ १७-२० उ.-महानुभाव ! इस लेख से श्रापका वह निश्चय-मन्तव्य - जैन शास्त्र में वस्त्र धोने का है ही नहीं ' पाताल में चला गया। जरा अंधता को छोड कर सोचो कि मलिनवस्त्र पर फूल के लगने से विराधना होगी कि मखिन वस्त्र पर नीलफूल जमने पर उसके वापरने से जीव विराधना होगी । आप लोग जब एक मामूली बात को भी न समझ सके तब कहिये-पिशाचपंडित का निरक्षर विद्यार्थी कौन हुआ ? । बस मन में ही समझो ! नाम कहने For Private And Personal Use Only Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की जरूरत नहीं । खैर जो धोना भी नहीं मानते थे, वे अब शास्त्रोक्तरीति से वस्त्र धोने पर तो मजबूर हुए । अब रहा चौमासे के सिवाय धोने का सवाल । इस के लिये शास्त्रीय प्रमाण रूप में उत्तर पिशाचपंडिताचार्य के प्रियमित्र श्रीयुत चन्दनमलजी नागोरी के नाम पर निछरावल की हुई वस्त्रवर्णसिद्धि नामक पुस्तक का ४६ वें नम्बर का प्रमाण ही बस समझना चाहिये । वह यहाँ ज्यों का त्यों भावार्थ समेत उध्धृत कर दिया जाता है किमर्थ पुनविर्भूषां आसेवते ? इत्याह-" मलेण वच्छं बहुणा उ वत्थं उज्झाइगोऽहंवि विणा भवामि । हं तस्स धोवम्मि करेमि तत्ति, वरं न जोगो मलिणाण जोगो॥३१२॥" इदं मदीयं वस्त्रं बहुमलेन ग्रस्तं-आपूरितं, अतोऽनेनाई 'उज्झागो' विरूपो भवामि, यतश्चाहं विरूप उपलभ्ये ततस्तस्य धौतव्ये तप्तिमहं करोमि, येन गोमूत्रादिना शुध्यति तदानयामित्यर्थः, कुत? इत्याह-वरं मे वस्त्रेण सह न योगा, परं मलिनवस्त्रप्रावरणादप्रावरणमेव श्रेयः इतिभावः, कारणे तु वस्त्रं धावन्नपि शुद्धः, परः पाह-ननु वस्त्रधारने विभूषा भवति, सा च साधूनां कर्तकल्पते 'विभूसा इत्थिसंसग्गी इत्यादि वचनात् । सूरिराह-'काम विभूषा खलु लोभदोषा, तहावितं पाउणो न दोसो मा हीलणिज्जो इमिणा भविस्सं, पुव्यिड्डिमाई इय संजईवि।।३१३ ।। " काम-अनुपतं एनत् खलुः अवधारणे पैषा विभूषा लोभदोष एव, तथापि तद्वस्त्रं शुचिभूतं कारणे कृत्वा प्राणवतो न दोषः, कस्य ? इत्याह-पूर्व राजादिक ऋद्धिमान् आसीत् स तादृशी For Private And Personal Use Only Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३६) ऋद्धिं विहाय प्रत्रजितः सन् चिन्तयति-मा अमुना मलक्लिन्न वाससा अबुधजनस्य इहलोकापतिबद्धस्य हीलनीयो भविष्यामियन्नूनं केनापि देवादिना शापशप्तोऽयं यदेवमेतादृशीं ऋद्धि विहाय साम्मतं ईदृशीं अवस्थां प्राप्तः, अादिशब्दादाचार्यादिरप्येवमेव शुचिभूतं वस्त्रं प्रावणोति, संयत्यपि ऋद्धिमत्प्रजिता नित्यं पाण्डुरपट्टप्राकृता तिष्ठति वा। भावार्थ:-साधु अपने मैले कुचले वस्त्र देख मनमें विचार करे कि मैं ऐसे मलिन वस्त्रों से बुग मालूम होता हूं । इसलिये इन को स्वच्छ बनाने की तजबीज करूं तो ठीक है, एसे विचार से याने वस्त्रों का मलिनपना अप्रिय हो जाने के कारण उन्हें तत्काल शुद्ध करना चाहिये. ऐसे प्रयत्न में लग के गौमूत्रादि (क्षार वगैरह) जिनसे वस्त्र शुद्ध हो जाता हो उनको प्राप्त करने की कोशीश करे, और सोचे कि मुझे नवीन वस्र का संसर्ग न हो तो अच्छा क्योंकि मलिनवस्त्र पहिनने से तो न पहिनना अच्छा होता है । इस जगह टीकाकार विशेष स्पष्ट करते फरमाते है कि किसी खास कारण से वस्त्र धोनेवाला भी शुद्ध गिना जाता है. लेकिन शंका होगी कि 'वस्त्र धोने से शोभा होगी और मुनिको विभूपा करना उचित नहीं है ' क्योंकि विभूषा और कंचन, कामिनी के संसर्गसे चाग्निवंत महात्मा तो अलग रहते हैं ? इसके उत्तर में भाष्यकार महागज फरमाते हैं कि भो शिष्य ! शोभा--विभूषा है. वह लोभसंज्ञा से है, लेकिन उज्ज्वलवस्त्र पहिनने से कोई दृषित नहीं बन सक्ता | क्योंकि किसी ऋद्धिमान महानुभावने या राज्यपुत्रने चारित्र ग्रहण किया For Private And Personal Use Only Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३७) हो और वह सांसारिक अवस्था में वैभवादि सामग्री से आनंदित रहा हो । उम वैभवशाली नर को मलीन वस्त्र से घृणा होना स्वाभाविक है । यदि वह मनुष्य चारित्रवान है तथापि इच्छा करे कि मैं स्वच्छ वस्त्र पहिर्नु तो ठीक है । तो यह कदापि दूषित नहीं बन सकता । और यही श्राज्ञा साध्वियों के लिये भी है । इस समयसूचक आज्ञा से टीकाकार महागज भी सहमत होते हुवे कहते हैं कि विभूपा जो है वह लोभदोष से ही है तथा कारणसे वस्त्र धोकर पहिनना बुग नहीं है और न दोष है । लेकिन किसके लिये नहीं है वह बताते हैं ---- ___ कोई महानुभाव राज्यऋद्धि पाया हुवा था या वैभवशाली कोई धनिक साहूकार था और दीक्षित हो गया है। उसके मनमें विचार आया कि मैं मलिन वस्त्र से मूर्ख और अज्ञानी लोक से हलका दिखुंगा या सामान्य लोग मेरी निन्दा करेंगे या कहेंगे कि इसको किसी देवता-पिशाचने श्राप दिया जिससे यह ऐसी अनुपम अलभ्य ऋद्धि सिद्धी का त्याग कर साधु बन गया और अब मलीन वस्त्र पहिने फिरता है। ऐसा भाव मनमें उत्पन्न हो । वह साधु हो या साध्वी अच्छे वस्त्र को पहिने तो दूषित नहीं माना जाता । वस्त्रवर्णसिद्धि. पृष्ट ४१-४४. वस्त्रवर्णसिद्धि पुस्तक के लेखक महाशयने सूत्र-पाठ के अर्थ करने में कितनी कपोल- कल्पना को है ? यह वात अनुवाद को मूल-भाष्य-टीका के साथ मिलाने से पाठकों को स्वयं विदित हो For Private And Personal Use Only Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (३८) जायगी । भला ! जिन्हें पूरा शब्दबोध नहीं और न पूरी हिन्दी लिखना याद । वे लोग भाष्य-टीकाकारों के मार्मिक प्रमाण-पाठों का अनुवाद कर लें, तो फिर विचारे विद्वानों को तो घास काटने के ही दिन उपस्थित होंगे। दर असल में दुनियां में ऐसे ही अनुवादकों के लिये यह कहावत चालू हुई हैं कि-' बड़े बड़े वहे जाय, गड्डमिया थाह मांगे ।' अथवा 'जहाँ हाथी ऊंट बहे जायँ, वहा गदहा कहे पानी कितना ?' पाठको ! ऊपर दिये हुए भाष्य-टीका के पाठ में वरवर्ण- . सिद्धि के अनुवादक ने 'वरं मे वस्त्रेण सह न योगः --मुझे नवीन वस्त्र का संसर्ग न हो, 'कारणे तु'-किसी खास कारण से, और 'शुचिभूतं वस्त्रं '-अच्छा, उज्ज्वल, स्वच्छ आदि जो अर्थ किया है, वह बिलकुल उत्सूत्र ( गल्त-शास्त्रविरुद्ध ) है । क्यों कि भाष्य-टीकाकार मलिनवस्त्र को धोने का अधिकार कह रहे हैं, उसके बीच में उज्ज्वल स्वच्छ वस्त्र को बताने की आवश्यकता ही क्या है ? । इस प्रकार के उत्सूव-भाषण के लिये पिशाच पंडिताचार्य को चपेटिका का चपटा लगा देना ही वस होगा । वह यह कि- “उस्सुत्तभासगाणं वोही णासो अणंत संसारो"--सूत्र विरुद्ध बोलनेवालों का सम्यक्त्व नाश पाता है, अर्थात् वह मिथ्यादृष्टि गुणठाणे जाता है, और आइन्दे अनन्त संसार में रुलता है, इसी विषय में कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेम.. चन्द्रसुरिजी भी फर्माते हैं कि---.. अल्पादपि मृषावादाद, रौरवादिषु संभवः । अन्यथा वदतां जैनी वाचं त्व ह ह का गतिः ॥ १॥ For Private And Personal Use Only Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir --" स्वल्प मृषावाद से भी आदमी का जन्म सातमी नरक के रौरव आदि नरक स्थानों में होता है तो फिर जो लोग जिनेश्वर महाराज की वाणी को ही दूसरी तरह से बोले उसकी तो गति ही क्या होगी ? याने उसकी गति श्रुतज्ञानी नहीं जान सक्ता है कि कितने भव की होगी." देखो ! चपेटिका पृष्ठ १-२. वस चपेटा लग गया । अब मूल मुद्दे की तरफ झुकिये ! भाष्य-टीका के उक्त पाठ और उसके अनुवाद से नीचे लिखी तीन बातें निर्विवाद और निःसन्देह सिद्ध हो गई। १ एक तो यह कि---वर्षाकाल के सिवाय के काल में भी स्वपर को घृणा ( ग्लानी) पैदा करनेवाले मलिन वस्त्रों को गोमूत्रादि ( क्षार वगैरह ) से धो लेने में शोभा और दोष नहीं है। २ दुसरी यह कि-मलिन बस्त्र लोक में मूर्ख, अज्ञानी और हलका दिखानेवाले होते हैं और लोगों को वैसे मलिन वस्त्रों से निन्दा करने का मौका मिलता है अतएव मलमलिन वस्त्रों को यतना से धो लेना भाष्य-टीका सम्मत है। ३ तीसरी यह कि-सांसारिक अवस्था में वैभवादि सामग्री से आनंदित रहा हो उस साधु साध्वी को मलिन वस्त्र से घृणा होने का कथन भाष्यकार का होने पर भी भाष्य में दिये हुए आदि शब्द को लक्ष्य में रख कर 'आदि शब्दादाचार्यादेरप्येवमेव' टीकाकार महाराज के इस कथन से आचार्य, उपाध्याय, गणी, For Private And Personal Use Only Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४०) गणावच्छेदक, रत्नाधिक, साधु और साध्वि को भी स्वपर को घणा उत्पन्न करनेवाले मलमलिन वस्त्र को क्षार वगैरह से धो लेने में शोभा और दोष नहीं है। आगे चपेटिका के पृष्ठ १८ में पिशाचपंडिताचार्यने आचारागसूत्र के 'नो धोएज्जा' इसकी टीका का अवतरण देकर इस बात की कोशीश की है कि यह पाठ स्थविरकल्पिक विषय का नहीं है, किंतु जिनकल्पिक विषय का है। कुलिंगियो ? “जग अंधता को एक तरफ रखकर उसी आचागंगसूत्र के 'नो धोएज्जा' पाठ की टीका को पूरी देखो तो सही, उसमें क्या लिखा है ?-- एतच्च मूत्रं जिनकल्पिकोद्देशेन दृष्टव्यं, वस्त्रधारित्व विशेषणात् गच्छान्तर्गतेऽपि वा अविरुद्धम् ।' अर्थात्-ये सूत्र जिनकल्पिक के उद्देश से दिखाये गये हैं परन्तु 'वस्त्रधारित्व' ऐसा विशेषण होने से स्थविरकल्पिक के विषय में भी समझ लेना विरुद्ध नहीं है । पर अरे वावा ! अपवाद की मौज-मजाह लूटने में इतना देखने की फुरसद किसको है ? इससे अपने आप मूर्ख बन जाना अच्छा है, ऐसा करने से अनाचारों का मेवा चखने तो मिलेगा। पू०-कपड़ा तो उज्ज्वल रखना है, विना वारिस के टाइम वार २ धोना है, और शास्त्रकार के नाम से अपने अनाचार को छपाना है, लेकिन अनाचारियों से बचने के लिये शास्त्रों के वाक्यों को सोचकर किया हुआ परावर्तन मान्य नहीं करना For Private And Personal Use Only Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir है, इतना ही नहीं, लेकिन शासन के धुरंधरों की निन्दा करनी है. पृ० १६. उ.--विना वारिश की टाइम मल-मलिन वस्त्र को धो लेने का खुलासा भाष्य टीकाकारने कर दिया है अतएव अपवादियों के समान बार वार इस विषय की पुनरावृत्ति करना निरर्थक है। लेकिन यति शिथिल हुए, उनसे वचने के लिये शास्त्रों के वाक्यों को सोच कर नहीं, किन्तु महावीरशासन और शासन के धुरंधर प्राचार्यों की निन्दा कगने के लिये ही वर्ण-परावर्तन किया गया है। यह बात गल्त नहीं, अक्षरशः सत्य है । देखो ! શ્રી મહાવીરસ્વામીથી ર૧૭૫ વરસઈ ગ૭માંહી ગુણવંત ગીતાર્થ આગલે પદ પ્રતિષ્ઠા અણુ પામતા કેટલાક મુનિવેષી એકઠા મલ્યા, તિણે પિતાની પ્રતિષ્ઠા વધારવા, શિષ્યાદિકને સુઓં સરસ આહાર પમાડવા, ૮૪ ગ૭ના યતિઓની હાંણું દેખાડવા, પિતાને વિષે સાધુપણું દેખાડી ગછાંતરના શ્રાવકને વ્યગ્રાહિત કરવા, ભદ્રક શ્રાવકને ભોલાવી પોતાના કરવા નિમિત્તે ભવેત વસ્ત્ર ટાલી એલિયા પ્રમુખે રંગી નગર માંહી ફરવા લાગ્યા. પણ તે પંચાંગી તથા ગરછમર્યાદા લેખે સાધુને વસ્ત્ર वा न घटे. આનંદચંદ મુનિ લિખિત આગમ વિચાર સંગ્રહ” પત્ર ૨૦ મે. पु०-जिस तरह से वस्त्र धोने के कारण पिंडनियुक्ति में दिखाये हैं उसी तरह से वस्त्र रंगने के भी कारण और रीति भांति नियुक्ति भाष्य और चूर्णिकारने साफ २ निशीथ सुत्र में दिखाये हैं. इस विषय का ज्यादा विवेचन हमारे For Private And Personal Use Only Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५२) परम मित्र की औरसे वस्त्रवर्ण की सिद्धि में लिखा गया है.। पृष्ट १६-२०. उ०—प्रियवर ! आपके परम मित्र के नाम पर गिरवे रक्खी हुई 'वस्त्रवर्णसिद्धि' नामकी पुस्तक शुरु से अखीर तक देखी । उसमें अंधभक्तों को कहने मात्र के लिये तो सौ प्रमाणों की भरमार की गई है । लेकिन उनमें ' गाड़ी लाड़ी वाड़ी के प्रेमि यतियों से जुदा भेद दिखाने के लिये महावीर वेश का परावर्तन कर डालना चाहिये ' ऐसे भाव का दर्शक एक भी प्रमाण-पाठ नहीं है। अतएव वीरशासन में साधु साध्वियों को नियुक्ति भाष्य और चूर्णिकारों की आज्ञा से वस्त्र का धो लेना तो अच्छा है; परन्तु अकारण को कारण बनाकर रंगीन वस्त्र का रखना या वस्त्र को रंगना वीरशासन में अच्छा नहीं है। पू०-वस्त्र और पात्र के लिये जो शास्त्रकाग्ने कलकादि (रंग) फर्माये हैं वह मान्य क्यों नहीं करना चाहिये ? दूसरे शब्दों को छोड़ दो, लेकिन वर्ण शब्द मे पांचों ही रंग आ जाते हैं, यह तो सोचना था. पृष्ठ-२०. उ०-महाशय ! अच्छी तरह सोच समझ कर ही कहा जाता है कि कारण उपस्थित होने पर पात्र को कल्कादि से शास्त्र में बताई हुई रीति के अनुसार जीवरक्षा के लिये यतना पूर्वक रंग लेजा निर्दोष है । परन्तु वर्ण शब्द से पांचों ही रंग का ग्रहण होने पर भी वीरशासन में सत्ती और ऊनी सफेद कपड़े के For Private And Personal Use Only Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सिवाय रंगीन वस्त्र रखना, या करना दोष रहित नहीं होने से मान्य नहीं करना चाहिये । दूसरी बात यह कि वस्त्र और पात्र को न धोने में और पात्र को निर्लेप रखने में जीवहिंसा होने की संभावना है, इसीसे शास्त्रकारोंने वस्त्र पात्र को धो लेने की और पात्रलेप की जो आज्ञा दी है वह जीवरक्षा के लिये ही है। वस्त्र धावनविषय का खुलासा पेश्तर किया जा चुका है । पात्र लेप के विषय में देखो ! ' वस्त्रवर्णसिद्धि' में श्रालेखित ८२ नम्बर का ही प्रमाण-पाठ स च लेपमधिकृत्योपदय॑ते-इहाक्षस्य धुरि म्रक्षितायां रजोरूपः पृथ्वीकायो लगति, नदीमुत्तरतोऽप्कायः लोहमयावपनघर्पणे तेजस्कायः यत्र तेजस्तत्र वायुरिति वायुकायोऽपि वनस्पतिकायो धुरेव द्वित्रिचतुरिन्द्रियाः सम्पातिमाः सम्भवन्ति, महीप्यादिचर्ममयनाडिकादेश्च घृष्यमाणस्यावयवरूपः पश्चेन्द्रियपिंडः इत्थंभूतेन चाक्षस्य व्यञ्जनेन लेपः क्रियते इत्यसावुपयोगी। -लेपका अधिकार बताते हैं- प्रथम तो उस गाड़ी के पइया में रजरूप पृथ्वीकाय लगता है, द्वितीय नदी उतरते पानी अप्काय लगता है, तीसरं लोहे की लाठ ( धूग ) घीसने से अग्निकाय लगता है और जहाँ तेज का प्रभाव है वहाँ वायु होना ही चाहिये, और फिरता हुवा पझ्या स्वयं वनस्पतिकाय का बना है । बेइन्द्रिय, तेइन्द्रिय, चौरेन्द्रिय, जीव उसमें गिरने का संभव है। For Private And Personal Use Only Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४४) इसके सिवाय भैंस श्रादि के चमडे की नाड़ी का घर्षण होता है सो यह सर्व पंचेन्द्रिय पिंड हो जाता है। ऐसे गाडी के पइये का कीट लेकर जो लेप करता है उससे यह उपयोगी है। वस्त्रवर्णसिद्धि-पृष्ट ६८. पाठको ! इसी प्रकार ओघनियुक्ति, और निशीथसूत्र भाष्य-टीका चूर्णि आदि शास्त्रों में भी पाव के लिये नाना लेपों की उपयुक्तता दिखलाई गई है । इसलिये पात्र में लेप लगाना अनुचित नहीं, उचित ही है। लेकिन वस्त्र रंगने के या रंगे हुए लेने के जो कारण शास्त्रकारने बताये हैं उनमें यतियों की शिथिलतारूप कारण नहीं बताया गया, अतएव वीर शासन में वस्त्र को रंगने की और रंगे हुए वस्त्र रखने की प्रवृत्ति अनुचित ही मानने लायक है। आगे चपेटिका के लेखक पिशाचपंडिताचार्यने पीतपटाग्रहमीमांसा के पृष्ट २७ से ३५ तक में आये हुए निशीथसूत्र व चूर्णि के विस्तृत लेख के लिये अपनी हार्दिक मलिनता को उगलते हुए भी मुद्दे की बात पर कुछ भी नहीं लिखा । परंतु “ पापीपिशाच, पेटभरने के लिये जन्म पाये हुए, कुतर्कानृतवादी, कुतर्कान्धवादी, कुटिलमति, अज्ञान का अंधेग छाया हुआ, अज्ञानी, अधर्मी, आग्रहावृत, मूर्ख, उन्मार्गगामी, अपनी मनसा ही कच्चे जल से धोने की, विचारा, नरक में जानेवाला, " इत्यादि वाक्यों से बारंबार पुनरावृत्ति करके चपेटिका के कोई पांच पेज काले किये हैं, जोकि लेखक की पिशाचता के दर्शक For Private And Personal Use Only Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४२) हैं । इन असभ्य शब्दों के लिये हमारे पास कोई उत्तर नहीं हैं। इस लिये इस प्रकार के असुन्दर वाक्य पिशाचपंडिताचार्य के मुख को ही सुशोभित करें । ठीक ही है कि संसार एक प्रकार का कारागार है, इसमें भिन्न भिन्न रुचिवाले जीव कर्म जंजीर से जकड़े हुए पडे हैं । उनमें अपने अपने कर्मों के अनुसार कोई व्यर्थ वितंडावाद में मस्त हैं, कोई निन्दा, मश्करी और दोषारोप करने में निमग्न हैं, तो कोई अपने जातिस्वभाव के कारण अनाचार सेवने और बुरे अल्फाज लिखने बोलने में ही अपनी बहादुरी समझते हैं । अपसोस ! ! अंधश्रद्धा का प्राशापाश भी विचित्र प्रकार का होता है, वह मनुष्यों को अच्छे मार्ग में प्रवेश करना तो दूर रहा, पर उसके संमुख भी नहीं होने देता ।” अपवाद सेवको ! याद रक्खो इस बुद्धिवाद के जमाने में जब तक निज मान्यता (गद्धाटेक) के लिये कोई शास्त्रीय पुरन्ता ग्रमाण पेश नहीं करोगे, तब तक वह सभ्य-समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखी जा सकती। प्रत्युत शास्त्र रहित मान्यता ( गद्धाटेक ) के लिये तो वही मुठरिया साहब के खिताब मिलेंगे कि-'सिंह फाल भ्रष्ट हो गया' 'अभिमान के बद्दल उड़ गये' ' गुजरात की कमाई, मालवा में गमाई ' 'फाकं फाका भी फक हो गई ' इत्यादि । पू०-~-वस्त्र परावर्त की परम्परा शोभा के लिये नहीं हुई है लेकिन शासन की रक्षा के लिये ही हुई है, इतना होने पर भी For Private And Personal Use Only Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (૪૬) जिसको शासन निन्दुक पने की आदत ही हो गई है उसको क्या ના નાદિયે ?, પૃષ્ઠ-૨ उ०- चाहे किसी भी उद्देश को लक्ष्य में रखकर वस्त्र पगव की परम्परा चालु हुई हो, इस विषय का हमे कोई विवाद नहीं है और न हम उस विषय का यहाँ विचार करना ठीक सम ते हैं । लेकिन वर्त्तमान समय में वस्त्र परावर्त्त के आग्रही लोगों से शासन की शोभा नहीं, किन्तु निन्दा हो रही है । अगर स्पष्ट शब्दों में कह दिया जाय तो विचारे गाड़ी वाड़ी लाड़ी के प्रेमी आधुनिक यतियों की शिथिलता से भी वस्त्र परावर्त्तवाले चार कदम आगे बढ़ते जा रहे हैं, ऐसा शासनप्रेमियों के लेख से साफ માહિ હોતા હૈ । તેવો !-~~~ પન્યાસજી * * એ વડનગરની અંદર સાધ્વી + !- શ્રીની ચેલીને ખંડી દીક્ષા આપતી વખતે ૩૦ ૧૧૦૦) લઇ મંડી દીક્ષા આપી અને તેમના પિતાને ઘરે મેાલાવ્યા. તે રૂપિયા લઈને ખડી દીક્ષા આપવી એ કયા શાસ્ત્રમાં છે ? વલી તેમણે અમદા વાદથી લીંબડી નિવાસી શાહુ * * કે જેએ મેસાણા-પાઠશાલામાં અભ્યાસ કરતા હતા તેમને અમુક રૂપિયા આપી દીક્ષા લેવા ખેલાવ્યા તે પુછવાનું કે આવી રીતે કરાએને છાની રીતે ન્હસાવવાથી શું સાધુઓના વશ રહેવાના છે. પન્યાસ * * ના શિષ્ય. મુનિ * * ( જે હાલ પન્યાસ પદે છે ) જેમને પંન્યાસ પદ્મવી આપવા પન્યાસજી * * પાસે મેાકલવામાં આવ્યા તે રૂ. ૮૦૦) લીધા પછી પન્યાસ પદવીના ચેાગેાદ્ધહન કરાવ્યા તા સાધુઓને રૂપિયા લઇ શું પેાતાનુ કુટુંબ For Private And Personal Use Only Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४७) નિર્વાહવું હતું કારણ કે તેમણે દીક્ષા પૈસા લેવાવાસ્તે લીધી छ शु? जैन पु० १६, ५४ ३५, ता० १-८-१८. ___ बस समझलो कि शासनप्रेमी के ऊपर के लेख से शासननिन्दकपने की आदत किसकी होगई है और ऐसे शासन की निन्दा करानेवालों को क्या कहना चाहिये ?, हमारी राय से तो शासन के ध्वंशक और दीर्घसंसारी । दर असल में इसी बात को उत्सर्गमार्ग को छोड कर उन्मार्गगामी होना समझना चाहिये. आगे पिशाचपंडिताचार्यने चपेटिका के २७-२८ वे पेज में अपनी मानसिक मलिनता का दृश्य दिखा कर चलती हुई मूल वात को उड़ा देने के लिये जीर्णप्राय शब्द के मार्मिक अर्थ को समझ लेने के वास्ते आजीजी की है। इसलिये लेखक की आजीजी को लक्ष्य में रख कर जीर्णप्राय शब्द के विषय में इतना युक्तियुक्त खुलासा कर देना चाहिये कि-- संयमयात्रा सुख पूर्वक निर्वाह हो, इस हेतु से साधु साध्वियों को वस्त्र रखने की प्राज्ञा हुई है। इसलिये जिन शास्त्रकारोंने धवल, जीर्णप्राय, अल्पमूल्य, और शुद्ध आदि वस्त्र के विशेषण दिये हैं, उनके कथन से उन्हीं विशेषण विशिष्ट वस्त्र ग्रहण करने का अभिप्राय जाहिर होता है और जिन ग्रन्थकारोंने केवल धवल, जीर्णप्राय वस्त्र ही रखने का लिखा है। उनने जीर्गाप्राय शब्द से ही वस्त्र की काल्पार्थता को प्रदर्शित कर दी है। क्योंकि जो वस्त्र सादा, और अभिमान-दर्शक नहीं है वह अल्पमूल्य ही होता है। For Private And Personal Use Only Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४८) अतएव वीरशासन में वक्रजड साधु साध्वियों को वर्ण से सफेद, मूल्य से थोड़ी कीमतवाला, जीर्णप्राय से जूना नहीं, पर जूने के समान, और शुद्ध से निर्दोष आदि विशेषणवाले वस्त्र ग्रहण करने या रखने की आज्ञा दी गई है। जो वस्त्र मूर्खा, भय, अभिमान और अधिक मूल्य के कारण हों वैसे वस्त्र रखने और लेने के लिये साधुओं को आज्ञा नहीं है। हां अलवत्तां उक्त प्रकार के सितादि विशेषणवाले वस्त्र कहीं हाथ न आवे और वस्त्र रहित रहने की सामर्थ्य न हो, तो उस साधु के लिये न्यूनाधिक विशेषणवाले वस्त्र भी अभावदशा में ग्रहण कर लेना निर्दोष समझा जा सकता है। परंतु वर्तमान समय में शास्त्रोक्त विशेषणवाले वस्त्रों की सर्वत्र सुलभता है, अतएव श्वेत, मानोपेत, जीर्णप्राय, शुद्ध और अल्पमूल्य आदि विशेषण विशिष्ट ही वस्त्र साधु साध्वियों को ग्रहण करना चाहिये । ___ “पू०-रंगने ( रंग बदल करने ) से नये वस्त्र की नवीनता नहीं चली जाती. इस जगह पर सोचने का है कि किसने कहा कि रंगने से नवीनता चली जाती हैं, लेकिन अकलमंद आदमी अच्छी तौर से समझ सक्ता है कि सफेद नये वस्त्र को रंगने से नये की झलक चली जाती है. पृष्ठ-२८. उ-प्रियवर मित्र ! आपकी मंद अक्ल के खजाने को देख कर विचारने से यही मालूम हुआ जब नये वस्त्र की रंगने से नवीनता नहीं जायगी, तब भला उसकी झलक भी कैसे चली जायगी ? क्योंकि नये कपड़े को रंगने से पहले की अपेक्षा दूनी झलक आ जाती For Private And Personal Use Only Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (४९) है, जो विशेष शोभा की कारण बन कर मोहक-पदार्थों पर अपना प्रभाव डाले विना नहीं रह सकती । कहिये ! फिर वह झलक क्या अपवादियों को मौज-मजाह उडाने में मददगार नहीं होगी ?, धन्य है महाशय ! तुम्हारी झलक गमाने की विधि को, और धन्य है आपके अकलमंदी आदमी पन को कि जिसके जरिये नये वस्त्र को झलक गमाते गमाते रंगने से दूनी झलक और शोभा के कामी वना दिये गये । पू०-कामशास्त्र के हिसाबसे जब उस सफेद वेषवाला कामी गिना गया है तो यह ऐहिक कामना का विषय यह सफेद वस्त्रवालों को क्यों नहीं लागु हुआ और इसीसे शास्त्रकारने भी सफेद वस्त्रवाले को वकुश में ही गिना है और सफेद वस्त्र पहन कर पडिक्कमणा करनेवाले को द्रव्य आवश्यक करने वाला ही कहा है. पृष्ठ २६. उ०-मालूम पडता हैं कि लेखकने पालीताणा की अंधारी जिस कोटडी में कामशास्त्र का शान्तिपाठ पढाया था, उसीके याद पाने से अथवा वैसे ही प्रसंग में बैठे हुए सफेद वस्त्रवालों पर ऐहिक कामना का विषय लागु किया है । पर पिशाचपंडिताचार्यजी ! खूब अच्छी तरह समझलो कि सफेद वखवाले तो किसी अपेक्षा से वकुश में भी गिने जा कर, उनका प्रतिक्रमण द्रव्य आवश्यक में भी गिना गया है, लेकिन रंगीनवस्त्रवाले जो अकारण को कारण बना कर मूलगुण को बरबाद करने में भी नहीं लनाते और जिनके लिये शासनप्रेमियोंको काले वावटों की तैयारी For Private And Personal Use Only Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५०) करनी पडती हैं । इतना ही नहीं, लेकिन शासनरसिक घरभेदु मणि विजयजी को उपधान की रंगशाला विखेरने के लिये हेन्ड - बिल भी निकालना पडते है, उनको नो शास्त्रकारने वकुश में भी नहीं गिना और न उनके पडिकमण को द्रव्य आवश्यक में ही गिना । कहिये लेखक महाशय ! भगवान् वीरप्रभु के श्रमण और उनके शासनानुयायी हरिभद्रसूरि, विजयहीरसूरि आदि कई सफेद कपडे रखनेवाले ही थे, तो क्या वे आपके कामशास्त्र के हिसाब सेकामी और कुश थे ? और उनका प्रतिक्रमण द्रव्य आवश्यक में था ? पाठको ! देखा पिशाचपंडिताचार्य की अक्लमंदी का खजाना, जिसमें वीरप्रभुके श्वेतवस्त्रधारी मुनिवरों को, हरिभद्राचार्य और जगद्गुरु विजयहीरसूरिजी जैसे प्रखर शासननायकों को भी वकुश ठहराने और कामी बनाने की धीठता भरी पड़ी है। ऐसे शासननिन्दकों को जिनाज्ञा-भंग करने के दोषी भी कह दिये जाय तो कोई हरकत नहीं है । अथवा ऐसे कलंकारोपी लोगों के लिये रक्षा भस्म और भस्मी शब्द एकार्थतारूप से रूढ कर दिये जायें तो अनुचित नहीं है । ठीक ही है कि ' आग्रहकी दृष्टि संसार में किस नर्थ को नहीं कराती ? ' पू० - जो आज काल वर्णपरावर्त्तित वस्त्रवाले है वो ही पूजने लायक गिने गये हैं और त्यागी माने गये हैं और यही बात इस कुतर्कानृतवादि को द्वेष करने वाली हुई है, इसी से इसने संवेगी शासनरक्षकों की निन्दा शुरू की है पृष्ठ - ३०. For Private And Personal Use Only Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उ०-महाशय ! निन्दक वे कहे जाते हैं जो शुद्ध सफेद कपड़े वाले मुनित्रगें और दिग्गज शासननायकों को वकुश और कामी ठहराते हैं. जैसा कि तुमने चपेटिका के पृष्ट २६ में कामशास्त्र के हिसाब से...सफेद वेषवाला कामी गिना गया हैं ' यह लिखा है । यह सफेदवेश को कामी माननेवाला कामशास्त्र जिनके घर में विलास करता है वही लोग निन्दक कहाते हैं । विदित होता है कि पिशाचपंडिताचार्य के वर्णपरावर्तित वस्त्रवाले अपवादग्राहियोंने दुनिया से पूजो लायक गिनाने और त्यागी मनाने का ठेका ( कंट्राट ) ले लिया है, इससे दूसरा तो कोई उनका अधिकारी मानो ! रहने पावेगा हो नहीं । परन्तु आश्चर्य है कि ऐसा ठेका ले लेने पर भी वर्ण परावर्तित वस्त्रवालों के लिये शासनप्रेमियों को तो समय समय पर उनकी योग्यता और त्यागिता को जाहिर करना ही पडती है । देखो : આજ કાલના જમાનાને અનુસરનારા અને મુનિના વેશને લજવનારા તથા અંધશ્રદ્ધાલુ શ્રાવકેની પાસે પુજવનારા એવા ५.न्यास * * तथा ** यामासा (५युष) मा मा વ્યાખ્યાન વાંચવા જતી વખતે શ્રાવકે પાસેથી અમુક રૂપિયાની શરતે પોતાના પરિવાર પૈકી કઈ સાધુને મોકલે છે કે જેઓને શબ્દપાવલીનું પૂરું જ્ઞાન પણ હોતું નથી તેવા સાધુઓથી જૈન કેમને શું ફાયદો થવાને. જેના પુત્ર ૧૬ અંક ૩૫. તા. ૧–૯–૧૮ તેમજ ગે ના ભાવનગર, જામનગર, પાટણ અને સૂરતમાં ફજેતા થયા છતાં વહાલ થઈ છોક પૂજાય છે, ત્યાં તેઓ પાસે For Private And Personal Use Only Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५२) शपातनी वास। २पाय छे. * * * * यार त अट थया છતાં તેનું પંન્યાસપદ કાયમ રહે ને હજાર હજાર રૂપિયા પચાસપદ આપતાં રેકડલે. શ્રાવકે જેમ દીકરી વેચી દ્રવ્ય ઉપજાવે તેવી દશા થાય છે, । पु० ११, अं४ ३८, ता. २८-८-१८. महानुभावो! कहो, आपके वर्ण परावर्तित वस्त्रवालों की क्या इसी योग्यता को पूजने लायक और त्यागी मानी गई है ? अगर ऐसे ही आपके घर के साधु पूजने लायक और त्यागी गिने जायँ . तो फिर संसार में त्यागियों को ढूंढने की या त्यागियों का स्वरूप आनने की आवश्यकता ही न रहेगी । अतएव ऊपर मुताबिक सत्य वस्तुस्थिति को प्रकाशित करनेवाले शासनप्रेमियों के लेखों को यदि कोई अपवादसेवक निन्दा समझ लेवे, तो इस विषय में हम निरुपाय हैं, अर्थात् इसके प्रतिकार का हमारे पास कोई उपाय नहीं है। सत्य है कि ऐसे पूजने लायक और त्यागी माने जाने वालों के लिये 'धत्तेऽथ पीतं पटमूर्ध्वदेशे, शुक्लं कटौ मोदकमीहमानः' विद्वानों का यही शिरपाव दे देना युक्ति-युक्त है । पू०-भाष्यकार महागज शरीर के एक भाग में या सर्वभाग में सफेद कपडे रखने वाले को वकुश गिनते हैं, और इधर ही मरीचि वचन में पृथ्वीकायका भेद जो गेरुक है उससे रंगनेवाले को काषायिक दशा दिखाई है. न कि सर्व रंगनेवाले की; इतना ही नहीं लेकिन कषायवाले को कवायला वस्त्र रखना यह शास्त्रकार का सिद्धान्त होवे तो जरूर क्षपकश्रेणी लगाकर अकपाय दशा न होवे तब तक अकपायित वस्त्र रखने की ही आज्ञा होना चाहिये पृष्ठ-३१. For Private And Personal Use Only Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir उ०—प्रियवर ! आपके पक्ष का समर्थन करने के पेश्तर हम यह पूछना चाहते हैं कि सर्वमान्य भगवान श्रीऋषभदेवस्वामी और श्री महावीरस्वामी के शासन में जो साधु साध्वी एकदेश या सर्वदेश से शास्त्रोक्त मर्यादा पूर्वक शरीर पर सफेद कपडे रखते थे वे क्या आपके भाष्यकार के हिसाब से वकुश गिने जाना चाहिये ? यदि कहा जाय कि नहीं. तो फिर आपके सिवाय ऐसा कौन दुर्बुद्धि है जो शास्त्र मर्यादा से सर्वदेश या एकदेश से शरीर पर सफेद वस्त्र रखने वाले शासन नायकों को वकुश में गिनने का साहस करे ? आश्चर्य है कि पिशाचपंडिताचार्य के भाष्यकार में जीर्णोद्धार के बहाने से इकट्ठी की हुई रकम से चा, दूध, सीग, पूडी खानेवाले उपधान के बहाने मेवा मिष्टान्न डटके उड़ानेवाले, तस्करवृत्ति से लोगों के लडके उड़ा ले जाने वाले, और केशरिया वागाओं में छिपकर अनाचार करनेवाले शोभादेवी के उपासक भ्रष्टाचारी तो वकुश की गिनती में नहीं है; पर जो वीरशासन की शुद्ध परम्पर!नुसार श्वेत वस्त्र के धारक, साधुयोग्य संयम क्रिया में दत्तचित्त, अनाचार और गाडी वाडी लाडी के प्रेम से बिलकुल अलग रहनेवाले साधु हैं वे वकुश की कोटी में गिने गये हैं । पाठको ! आप समझ सकते हैं कि पिशाचपंडिताचार्य का भाष्यकार कितना विलक्षण हैं ? जो संयमी-श्रमणों को पतित और अनाचारियों को उच्चतम दिखाता है। अब सोचिये इससे अधिक फिर उन्मत्त प्रलाप क्या हो सकता है ? अतः ऐसे उन्मत्त प्रलापियों को मिथ्यादृष्टि कापायित वस्त्र वाले सर्वदेशी तापसों से भी कनिष्ट कह दिये जायँ तो अतिशयोक्ति नहीं है। भला ! सोचो तो सही कि मरीचि के वचन में शास्त्रकार For Private And Personal Use Only Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५४) महाराजने काषायिकदशा का उत्पादक हेतु क्या बताया है ? " अकलुषितमतयो यतयः, नाहमेवमतो मे कषायकलुषितस्य धातुरक्तानि वस्त्राणि भवन्तु - साधु कपाय रहित मतिवाले होते हैं, मैं वैसा नहीं हूं, अतः कषायकलुपित मतिवाले मुझको धातु ( गेरु ) से रंगे हुए वस्त्र हों" किरणावलीकार के इस कथन से साफ जाहिर होता है कि मरीचि को कापायिक दशा का उत्पादक हेतु कपायकलुषितमति है, न कि रंग से रंगना, और खुद की कपाय. कलुपित मति मान करके मरीचिने धातुरक्त व धारा किये हैं । कहिये ! कषायवाले को कपायला वस्त्र रखना ऐसा मरीचि का सिद्धान्त हुआ या नहीं ? यदि हुआ तो बस, हम भी यही कहते हैं कि कपाय कलुषित मतिवाले लोगों के लिये धातुरक्त वस्त्र हैं। अगर ऐसा नहीं होता तो मरीचि को 'सुकंवग य समया, निरंग' ऐसी विचारणा करके धातुरक्त वस्त्र रखने की जरूरत क्यों पडती ? दूसरी बात मरीचि की विचारणा में यह भी मिलती है कि सफेद कपड़ों के धारक और विलकुल कपडे रहित ये दो तरह के शुद्ध मुनि होते हैं। इससे सफेद कपडे रखना ही शुद्ध मुनिवरों के लिये सिद्ध है। पू० - शासनरक्षकों में दुराचारी से शासन को बचाने के लिये ही शास्त्राज्ञानुसार वर्ण परावर्त्तन किया है लेकिन क्या करे ? कल के प्रोथमीरों को रक्षा को भस्मी समझाने का और कारण को पुष्पवती का कारण समझने का कल में आया है. पृष्ठ-३२. उ०- शासन को बचाने के लिये नहीं और शास्त्राज्ञानुसार For Private And Personal Use Only Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५५) नहीं. किन्तु मतिकल्पना से शासन को कलंकित करने के वास्ते ही वर्ण परावर्तन वर्तमान में जारी है यह बात अव अक्कल में अच्छी तरह आ चुकी है और इसके प्रमाण के लिये शासनप्रेमियों के फिकरे मौजूद हैं। जिनमें से कुछ नमूने पेश्तर लिख दिये गये है। इसलिये ऐसे अकल के ओथमीर मनोमतियों के लिये रक्षा को भस्मीरूप में रूढ करना और उन श्रोथमीरों के कारण को पुष्पवती का कारण समझना अनुचित नहीं, उचित ही है । पाठको ! चपेटिका के लेखक के भाष्यकार के 'दुगचारी से शासन को बचाने के लिये ही' इस सूत्र की व्याख्या भी कैसी उत्तम है ? इसको भी देखलो-- ત્યારે કેટલાક કહે છે કે–એમણે બધાને નીચેના હાલમાં સુવાડી પોતે એને લઈને ઉપરની ઓરડીમાં એકલા સુવાનું શું કારણ? વલી કેઈક તો કહે છે કે–આ બધી ગડમથલ લાંબી મુદતથી ચાલ્યા કરતી હતી. ત્યારે કેટલાકે તે એમ કહે છે કે–એક સમુદાયથી અનેક ગુન્હાઓમાટે ડિસમિસ થયેલ એ "..."ने राज्यो छे, मे माटुं ५५ पाथु छे. न्यारे 21 તે કહે છે કે- એમાં પાપ જેવું જ શું છે? ત્યાં ક્યાં નવલાખ જેની હિંસા થવાની હતી? ગમે તેમ હાય-સાચું ખોટું જ્ઞાની જાણે. ફકક્કને ક્યાં સ્નાનસૂતક કરવું પડે તેમ છે? ઘડીસરની ગમ્મત, ખેલ ૪, પૃષ્ઠ ૪. आगे चपेटिका के लेखक महाशयने 'अत्थं भासइ अरहा' इस सूत्र-वाक्य से यह सिद्ध करने की कोशीप की है कि सूत्र तीर्थंकर प्ररूपित नहीं है। भला! सोचो तो सही कि-जव तीर्थकर For Private And Personal Use Only Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५६) अर्थ को कहते हैं, तो कहना, प्ररूपणा दोनों शब्दों का मतलब एक हुआ या नहीं ? और इससे ऐसा सिद्ध होने में क्या कसर रही कि-तीर्थंकर महाराज के कहे हुए अर्थों को गणधर आदि सूत्र रूप से गुम्फित करते हैं, वे सुत्र तीर्थंकर के प्ररूपित (कहे हुए) और गणधरों के रचित हैं। पर अनृत कुतर्कों से वादि होनेवाले पिशाचपंडिताचार्य को ऐसा अर्थ भासमान कहांसे होवे ? पू०-समझना चाहिये कि शास्त्र में वस्त्र का सारा ही अधिकार पात्र के समान कहा है तो पात्र रंगने की जहाँ आज्ञा मिलेगी वहाँ ही वस्त्र रंगनेकी आज्ञा हो जायगी कि नहीं ?. पृष्ठ-३३. उ०—महानुभाव ! अच्छी तरह समझ लिया कि जिन शास्त्र निर्दिष्ट कारणों पर पात्र को रंगने की आज्ञा है, वह ठीक है और उसके अनुसार पात्र को रंग लेना निर्दोष है । परन्तु निशीथसूत्र, चूर्णि, भाष्य और टीका में वस्त्र का अधिकार पात्र के समान होने पर भी जो कारण बतलाये गये हैं. उनमें यतिशिथिल हुए उनसे जुदा भेद दिखाने, अथवा दुराचारी-यतियों से शासन को बचाने के लिये वस्त्र रंगना या रंगे हुए वस्त्र रखना चाहिये इस भाव का दर्शक कोई कारण नहीं है; इसलिये इस कारण को मान कर शास्त्र में वर्णपरावर्तित वस्त्र रखने की प्राज्ञा वर्तमान में नहीं है। इसी प्रकार 'अप्पत्तेचिय वासे०' इस पिंडनियुक्तिसूत्र और 'अप्राप्तवर्षादौ ग्लानावस्थायां' इस आचारांगटीका के अनुसार वर्षाकाल के नजदीक के टाइम में सर्व उपधि को धो लेना; ओर For Private And Personal Use Only Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (५७) 'मलेण वच्छं बहुणा उ०-इदं मदीयं वस्त्रं बहुमलेन यस्तं०' इत्यादि भाष्य-टीकाकार की आज्ञा से स्व-पर को ग्लानी करनेवाले मलाविल वस्त्र को वारिश के सिवाय भी धो लेना चाहिये । निशीथचूर्णि में ' एवमादीएहि कारणेहिं० ' ऐसा कह कर जो बहुत ही कारण दिखाये हैं उनमें यतियों की शिथिलता के कारण की गंध तक नहीं है और चूर्णिकार महाराज के दिखाये हुए कारण वर्तमान में प्रायः उपस्थित नहीं है । अतएव वस्त्र वर्ण परावर्तन करना महावीर शासन में अनुचित ही है। __ यदि कहा जाय कि-उत्तराध्ययनसूत्र टीकाकारने 'वेषविडम्बकादयोऽपि वयं व्रतिनः' इस वाक्य से वेषविडम्बकों से साधुओं का जुदा वेश लोगों के विश्वासके लिये स्वयं प्रतिपादन किया है ?, परन्तु इस खुलासे में उन्हीं टीकाकारने वर्द्धमानविनेयानां हि रक्तादिवस्त्रानुज्ञाते वक्रजडत्वेन वस्त्ररञ्जनादावपि प्रवृत्तिः स्यादिति न तेन तदनुज्ञातम् । ' इन वाक्यों से वर्द्धमान स्वामि के शिष्यों को वस्त्ररंजनादि प्रवृत्ति का स्वयं निषेध कर दिया है। इससे वर्द्धमान भगवान् के शासन में यतियों की शिथिलता का कारण रहने पर भी उनसे जुदा भेद दिखलाने के लिये वस्त्र का रंगना सिद्ध नहीं है, किन्तु शास्त्रोक्त मर्यादा से सफेद वस्त्र ही रखना सिद्ध है । लेकिन जिन लोगों का अथवा यों समझिये कि पिशाचपंडिताचार्य का हृदय-भवन अन्त कुतर्कों की वादि से वासित है, उनको शुद्ध समझने का रास्ता कहां से मिल सकता है ? उन्हें तो केवल अपवाद के परदे में बैठ कर मनोकामना ही सिद्ध करनी है । For Private And Personal Use Only Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ५८ ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चेलेंजनिरीक्षण- " संसार में कईएक मनुष्य ऐसे भी होते हैं. जो गिर चुकने, भाग जाने और सर्वप्रकार से हताश होने पर भी स्वयं बहादूर बनने के लिये अपने अन्धभक्तों का शरण लेकर जयशील होने का प्रयत्न करते हैं । अगर निष्पक्षपात होकर कह दिया जाय, तो ऐसे ही दुर्बल मनुष्यों के लिये संसार में 'मियाँ गिरे तो टंगडी ऊंची ' और ' मुक्की से पापड तोड़े, कच्चा तोड़ा सूत । मृत मक्खि के पंख उतारे, हम हैं बहादूर पूत ॥ ये कहावतें बनी हैं । " वस यही करत कुतर्कों से वादि होनेवाले महाशय आनंदसागर - सागरानंदसूरिजीने किया है। क्योंकि वे अपनी उज्ज्वल कीर्त्ति को पलायन और पराजयरूप कोयलों से काली किये वाद यद्वा तद्वा उन्मत्त प्रलाप करके चपेटिका के द्वारा जाहिर करते हैं कि शास्त्रार्थ के लिये तुमको रतलाम में चेलेंज देने में आया था लेकिन तुमने शास्त्रार्थ से निर्णय करने के पेश्तर ही पराजय मंजूर कर लिया था. फिर भी तुमको शास्त्रार्थ में हाजिर होने का मौका हम लाते, लेकिन चौमासा उतरने के पेश्तर ही महाराजा रतलाम के दिवान साहब की तरफसे जज साहबने आकर इस्तिहारबाजी होने की दोनों पक्षवालों को मनाई की पृष्ठ-३६. - महानुभाव ! अब तुम्हारी इस सत्य निर्बल पोपलीला को कोई सत्य मान लेवे यह स्वप्न में भी न समझों । क्योंकि उसी समय शासनप्रेमी विवेकचंद्र नामक श्रावक बम्बईसमाचार और For Private And Personal Use Only Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ૧૨ ) हिन्दुस्थान दैनिक पत्र में तुम्हारी सारी बनावटी पोपलीला को हुबोहुब पब्लिक श्राम में जाहिर कर दी है। देखो ता. १२-१२-२३ का दैनिकहिन्दुस्थान । जो इसी पुस्तक में ' हेन्डविल किसने गेकाये' इस हेन्डिग के नीचे ज्यों का त्यों उद्धत है । दूसरा वम्बई-समाचार का भी लेख अवलोकन कग्लोજેન સાધુઓ અને સાધ્વીઓએ કેવાં વસ્ત્ર ધારણ કરવાં? લગભગ સાત મહીનાથી રતલામ (માળવા)માં શ્રી ૧૦૦૮ શ્રી જૈનાચાર્ય ભટ્ટારક શ્રી રાજેન્દ્રસૂરીશ્વરજી મહારાજના શિષ્ય શ્રીમાન વ્યાખ્યાન વાચસ્પતિ મુનિ શ્રી યતીન્દ્રવિજયજી મહારાજ અને શ્રી ૧૦૦૮ આચાર્યજી શ્રી સાગરાનંદસૂરિજીની વચ્ચે જૈન સાધુને જૈન શાસ્ત્રોના આદેશ પ્રમાણે ધેળાં કપડાં પહેરવાં કે રંગેલાં પહેરવા જોઈએ? તેની ચર્ચા ચાલતી હતી. તેમાં શ્રીમાન યતીન્દ્રવિજયજી મહારાજે પ્રાચીન અર્વાચીન જૈન શાસ્ત્રોના પ્રમાણપાઠ સાક્ષર જેનસમાજ આગળ છેન્ડબીલ દ્વારા આપી જૈન સાધુ-સાધ્વીઓને વર્તમાનકાળમાં સનાતન રિવાજ પ્રમાણે વેત વસ્ત્ર ધારણ કરવાં, રંગીન નહિ, એમ સિદ્ધ કરી બતાવ્યું હતું અને શ્રીમાન સાગરન. દસૂરિજીને હેન્ડબિલ દ્વારા સૂચના આપી હતી કે “અપવાદથી સાધુઓને પીળાં વસ્ત્ર રાખવા” એવી રીતે આપ કહો છે તે તેની સિદ્ધિ માટે શાસ્ત્ર પ્રમાણ જાહેર કરો, પરંતુ અત્યારસુધીમાં તેમના તરફથી કોઈ પણ પ્રમાણ જાહેર થયું નહિં. તેથી સ્થાનકવાસી, દિગંબર વિગેરે રતલામના લોકોમાં જણાઈ આવ્યું છે કે તે સંબંધમાં શાસ્ત્ર પ્રમાણ હોવું ન જોઈએ. સાગરજીએ શ્રીયતીન્દ્રવિજયજીના હેન્ડબીલના જવાબ આપી ન શકતાં શ્રીમાન દીવાનસાહેબ સ્ટેટ રતલામના પાસે હેન્ડબીલે વંદ કરાવવા For Private And Personal Use Only Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६०) અરજ કરવામાં આવી અને દયાલુ શ્રીમાન દીવાનસાહેબે તે અરજ ધ્યાનમાં લઈને દીવાલીના દિવસે શ્રીજજસાહેબ સ્ટેટ રતલામને મહારાજ શ્રીમાન યતીન્દ્રવિજયજી પાસે અને શ્રીસાગરજીની પાસે મેકલાવી બન્ને તરફના હેન્ડબિલો મુલતવી રખાવ્યાં છે. ખુશી થવા જેવી વાત એ છે કે શ્રીમાન સાગરાનંદસૂરિજીએ પોતાના શરીર પર પહેરતા વર્યોમાં સફેદ વસ્ત્રને મુખ્ય स्थान मा५१॥ २३ ४री दीघुछ. शांति: ! शांति: !! शांति: भुप४ सभा-या२, ५. १०४, २५४ २८५, १४ सि०५२ सन् १८२३. . इससे सागरजी की सत्यता और कुटिलता का पूरा पता लग जाता है, इसलिये इस विषय को विशेष स्पष्ट करने की आवश्यकता नहीं है । क्योंकि सागरजी की असत्य के परदे से आच्छादित सभी पोपलीला का पोकल अब खुलंग्वुला हो चुका है और उसको आबाल वृद्ध सभी अच्छी तरह जान चुके हैं । अतएव अब वे अपनी गिरी दशा को चाहे कैसे भी असत्य लेखों के रूपक से सुधारने का उद्योग करें, परन्तु वह किसी के विश्वास लायक नहीं हो सकती। आश्चर्य है कि चार चार दफे शास्त्रार्थ के लिये प्रतिज्ञा पूर्वक मुद्रित चेलेंज दिये गये और शास्त्रार्थ को समझाने का पूरा प्रबन्ध भी किया गया। इससे घबरा कर, नहीं नहीं निर्बलता के कारण रतलाम से ऐसा निशि-पलायन किया कि ठेठ कलकत्ता में जाके सांस लिया और अब दो-ढाई वर्ष बीतने बाद अंधभक्तों के शरण में गिर कर अपनी बहादुरी का तौल बताना शुरू किया है। भला! इस बहादुरी को मूर्ख अंधभक्तों के सिवाय दूसरा कौन सगह सकता है ? इस विषय में एक विद्वान्ने ठीक ही कहा है कि For Private And Personal Use Only Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir " गेहेषु पण्डिताः केचित् , केचिद् ग्रामेषु पण्डिताः । सभायां पण्डिताः केचित् , केचित्पण्डितपण्डिताः ॥१॥" -कई लोग घर में ही पंडित बनते हैं और कई लोग ग्राम में ही, कई पांच दश अपढ़ लोगों के जमाव में अपनी पंडिताई छांटते हैं, परन्तु पंडितों के बीच में तो पंडित कोई विग्ला ही होता है। आगे आनन्दसागरजीने यह सोच समझ कर कि अपने अंधभक्तों के गाँवों में अपना मनमाना हुल्लड़ और अंडबंड उन्मत्त प्रलाप करके, इतना ही नहीं बल्कि जिस तरह चाहेंगे उसी तरह अपने मनमोदक सफल कर लेवेंगे और अंधभक्तों के सहारा से अपनी विजय पताका फरकने लगेगी। इसी हेतु को मन में रख कर चपेटिका के द्वारा जाहिर किया है कि___अव तुम भी मारवाड़ के इस भाग में हो और हम भी इसी भाग में हैं, तो चातुर्मास के बाद नयाशहर, पाली, जोधपुर और सिरोही जस कोई भी प्रसिद्ध स्थल में शास्त्रार्थ करने की पासशुक्ला पूर्णिमा के पेश्तर की मुद्दत और उस विषय ( अपवाद पर भी रंगीन कपडा नहीं होना चाहिये ) की प्रतिज्ञा जाहिर करके आना लाजिम है । पृष्ठ--३७. पाठकों ! देखा आनंदसागरजी की निर्बलता का नमूना ?, आपने वे प्रसिद्ध स्थल दिखाये हैं, जहाँ कि केवल लकीर के फकीर अन्धभक्त ही है और वे प्रायः पिशाचपंडिताचार्य और अपवाद सेवकों के ही श्रद्धालु हैं। भला ! इस प्रकार के एक पक्षी क्षेत्र For Private And Personal Use Only Page #65 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६२) शास्त्रार्थ के लिये कभी योग्य माने जा सकते हैं ? नहीं ! नहीं !! कदापि नहीं ! ! !. शास्त्रार्थ के लिये तो ऐसे क्षेत्र होना चाहिये कि जहाँ किसीके पक्षपाती न हों, अथवा दोनों पक्ष के लोग हो । लेकिन जिन्हें खाली शास्त्रार्थ का डौल दिग्वा कर केवल अंधभक्तों में यद्वा तद्वा के जाप से और जैसे को 'जस' व पौप को 'पाप' लिखके झूठी वाह वाह कगना हो. उन्हें पत्नपात रहित अथवा उभय पक्ष के सभ्य लोगों से मतलब ही क्या है ? वे नो अपने भोपों के शरण में ही रहना पसंद करेंगे । ___ चार वार तो आनंदसागर ( सागगनंदसूरि ) जी रतलाम, सेंवलिया और मक्षी से शास्त्रार्थ की मंजूरी देने पर भी अपवाद से रंगीन कपडे सिद्ध करते करते आखिरी टाइम पर गत्रि को ही पलायन करके कूच कर गये और कलकत्ते जाकर सांस लिया । तो जिसकी जगह जगह से वार वार आखिरी टाइम पर भगजाने की आदत पड़ चुकी है वह फिर भी खुद की प्रतिज्ञा के लिये टॉय टॉय फिस् बोल जाय तो कौन ताजुब की बात है ?. इतना ही नहीं, किन्तु देवद्रव्य की चर्चा में विजयधर्ममूरिजी के साथ, अधिकमास की चर्चा में खरतर गच्छीय मणिसागरजी के साथ, सामायिक में पिछली ईरियावहिया की चर्चा में कृपाचन्द्रसरिजी के साथ, और त्रिस्तुतिविषयक चर्चा में पं० तीर्थविजयजी के साथ में शास्त्रार्थ का हल्ला मचाते हुए आखिरी टाइम पर आनंदसागरजीने पलायन का ही रास्ता पकड़ा था। ठीक ही है जिसके भाग्य-फलक में जगह जगह से पलायन करना ही लिखा है, वह शास्त्रार्थ के अयोग्य ही है । समझो कि-ऐसे लोगों की दौड़ For Private And Personal Use Only Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६३) कहाँ तक ? अन्धभक्तों के शरण तक । कहावत भी है किमियां की दोड कहाँ तक ? मसीद तक । बस खैर ! खैर ! ! बाबा !! चुपचाप बैठे हुए अब खैर मनाओ ! ! ! पुनरावलोकन__ पाठकवर ! इस पुस्तक को समाप्त करते हुए चपेटिका के लेखक पिशाचपंडिताचार्य की वे तीन बातें, जो उसने अपनी पिशाचता दिखलाने के लिये, अथवा यों कहिये कि निज जन्म को बरवाद करने के लिये लिख डाली हैं | उनका भी फिर से अवलोकन कर लेना अनुचित नहीं है। उनमें से प्रथम बात यह है कि" असिवे श्रोमोयरिए, रायदुठे भए व गेलन्ने । सेहे चरित्तसावय, भए व जयणाए गिहिज्जा ॥ समर्थ, स्थिर, स्वतंत्र, और लक्षणवाला वस्त्र न मिले तब असमर्थादि विशेषणवाला वस्त्र भी अशिवादि कारणों में यतना के साथ लेना. पृ० ६." देखिये ! पिशाचपंडिताचार्य के मलिन हृदय से निकले हुए इस अर्थ की ऊपर दी हुई गाथा में कहीं गंध तक भी है !, बस ऐसे ही उटपटांग ( अंडबंड ) अर्थ करके अपवाद के हिमायती पिशाचपंडिताचार्यने स्व-पर का जन्म बरबाद किया है ! दर असल में इसीका नाम दुराग्रह है और ऐसे दुराग्रही लोग सूत्रोंके अर्थ, पाठों का फेरफार और कहीं का पाठ कहीं लगा देना आदि अनर्थ कर डाले तो कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि दुराग्रही लोगों का For Private And Personal Use Only Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir यही काम है. ये लोग अगर ऐसा अनर्थ न करें तो फिर तमस्तमां का अतिथि कोन बनें ?. इस गाथा से चपेटिका के लेखक महाशय यह सिद्ध करना चाहते हैं कि यह गाथा वस्त्र के वर्ण परावर्तन को दिखानेवाली नहीं है । इसलिये इसके उत्तर में हम विशेष उल्लेख न करके लेखक के परम मित्र वस्त्रवर्णसिद्धि कार का चपेटा लगा देना ही उचित समझते हैं । वह यह है कि भाष्यकार महाराजने वर्णपरावर्तन का कारण यह कहा है असिवे ओमोयरिये, रायगुट्टे भए व गेलने । सेहे चरित्त सावय, भए य गहणं तु जयणाए ॥१॥ भावार्थ-अशिव, ऊनोदरी, राजद्वेष, भय, व्याधि, शैक्षक, चारित्र अथवा पशु आदि जानवर के भयसे यतना पूर्वक ग्रहण करना, इति । वस्त्रवर्णसिद्धि-पृष्ठ ७४-७५. "दैव दैवियों का उपद्रव हो या ऊनोदरी हो याने गोचरी पूरी न मिलती हो, राजा द्वेषी हो, किसी का भय हो, अथवा कोई शारीरिक व्याधि हो ऐसे समय वस्त्र पात्र का रंग पलटना । ” देखो ! वस्त्रवर्णसिद्धि पृष्ठ ७४ पंक्ति ७. इस लेख से हमारा वही सिद्धान्त निर्विवाद सिद्ध हो जाता है कि-"असिवे प्रोमोयरिए रायढे भए व गेलन्ने ।" इत्यादि भाष्यकारोक्त कारणों के उपस्थित होने पर कल्कादि वर्णक For Private And Personal Use Only Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६५ ) पदार्थ से वस्त्र को धो लेने में कोई भी दोष नहीं है । क्योंकि चूर्णिकार महाराज ' खदिर बीयककादीहिं य पुणो पुणो धोव्वमा' तथा 'ara aकादिणा ' इत्यादि वाक्यों से कल्कादि से धो लेने का ही विधान करते है, रंगने का नहीं । अतएव चपेटिका के लेखक का 'रंगसे वस्त्रों की आज्ञा दी है यह वाक्य कैसा असंगत और झूठा है, क्योंकि न तो रंगसे वस्त्र धोये जाते हैं ' इत्यादि सभी उन्मत्त - प्रलाप निष्फल ही है । वर्णसिद्धिकार का जो लेख ऊपर दर्ज हैं उसमें एक बात बड़े महत्त्व की जाहिर होती है । वह यह कि जिन्हों के पीछे देवदेवियों का उपद्रव लगा हो, जिन्हों को पूरी गोचरी खाने को न मिलती हो और जिन्हों पर राजा रुपमान हुआ हो उन्हीं के लिये विवर्ण वस्त्र रखने का भाष्यकार फरमा रहे हैं, तो जान पड़ता है कवाद के हिमायतियों के पीछे ये कारण अवश्य लगे होंगे ? इससे ये लोग faar के लिये इतना दुराग्रह कर रहे हैं और अर्थों का अनर्थ करते भी नहीं लजाते । दूसरी बात चपेटिका के लेखक की यह है कि--- भीमसिंह माणेकाळी सज्झायमाळा में तो ऐसा पाठ है कि'कालो कपडा खंभे धावली, कांख देखाड़ी बोले ' अर्थात् वहां तो काले कपड़ेवाले को कुगुरु कहा हैं लेकिन रंगीन कपड़ेवाले का नाम ही नहीं हैं. ' रंगेल ' ऐसा शब्द तो......मूंठा लिखा है. पृष्ट-८. मान्यवर ! आपकी फेरफार की हुई भीमसिंह माकवाली सज्झायमाला में चाहे सो लिखा गया हो । परंतु प्राचीन लिखे For Private And Personal Use Only Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुए पत्र जो जुदे जुदे तीन लेखकों के हमे प्राप्त है, जो संवत १७६४, १८५२ और १६२१, अनुक्रम से लिखे हुए हैं । उन तीनों प्राचीन-पत्रों में तो 'रंगेल कपड़ा खंभे धावली' ऐसा ही पाठ है. इससे मालूम होता है कि सम्झायमाला में छपाते वक्त किसी रंगीन कपड़ेवालेने जान बूझ के फरकार का दिया है, लेकिन प्राचीन पत्रोंका ही पाठ सही है । इसके अलावा शा. कचगभाई गोपालदास अमदावाद, बडीपोल के तरफ से सं० १६५० में मुद्रित · जैनसिज्झायमाला' भाग २ के पष्ट १४६ में रंगेल कपडा खंभे धावली' ऐसा ही छपा है। ___ कदाचित् थोडी देर के लिये पिशाचयंडिताचार्य के लिखे अनुसार ' काला कपडा खंभे धावलीमा ही पाठ मान लिया जाय तोभी क्या सिद्धि हुई ? क्योंकि उसी सज्झायमाला में छपी हुई उसी सज्झाय की आगे की ८ वी गाथा को देखो ! "आचारांगे वस्त्रनो भाष्यो, श्येन में पानी न । ते तो मारग दूरे मूक्या, कपडा । हेत ।। जि० ॥८॥" अर्थात्-आचारांगमूत्र में साधु के लिये श्वेत मानोपेत वस्त्र रखना फरमाया है, उसको छोड़कर जो साधु कपड़ा रंगते हैं, वे साधु नहीं, कुगुरु हैं। इसमें उपाध्याय जी श्रीयशोविजयजी महाराजने रंगीन कपड़ेवालों को भी कुगुरू कहा है। इतना ही नहीं, बल्कि सज्झाय की आंकणी में तो रंगीन कपड़ेवालों को कपटी का सुन्दर खिताब भी देदिया गया है । लो फिर भी वांचलो “ जिणंदे कपटी कहिया पह, एहनुं नाम न लीजे जि." For Private And Personal Use Only Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६७ ) तीसरी बात पिशाचपंडिताचार्य की यह है कि आचार्य श्रीविजयदेवसूरिजी के पट्टक में ही लिखा है कि--- • આચાર્ય ઉપાધ્યાય સિવાય બીજા યતિએ તેમજ ગીતાર્થે હીરાગલ વસ્ત્ર તથા શણનું વસ્ત્ર ન હેારવુ. કદાચ આચાર્ય આદિક દીધુ હોય તો પણ ઉપર નહિં એવું કેશરયું વસ્ત્ર હાય તો તેનુ વર્ણ પરાવર્ત્તન કરી નાંખવું. બીન્ત પણ પીતવણું - पाला वस्त्र न ओढवा.' इस पट्टक से प्राचार्य और उपाध्याय को हीरागल और सण का वस्त्र रखने की और वहरने की छूट हुई है तो फिर वह बात क्यों नहीं मानना ? इतना ही नहीं, लेकिन • केशरियं होय तो ' इस वाक्य से केशरिये रंग के वस्त्र रखते थे और वहोरते थे, पृष्ठ--६. पंडितंमन्य ! वे प्राचार्य उपाध्याय जो जैनशासन के रक्षक और राजमान्य होते हैं और जिन्होंके चरण-कमलों में बड़े बड़े राजा महाराजा शिर झुकाते हैं, उन्हीं प्राचार्य उपाध्याय के लिये हीरागल और का वस्त्र रखने और वहरने की आज्ञा है । • लेकिन तुम्हारे जैसे जो हजारों रुपैया भेट कर और वीसों दफे मिलने की आजीजी करा कर खुशामद के साथ एक दो सामान्य ठाकुर या दीवान को बुलाते हैं या खुद खुशामद करनेके लिये उनके घर पर जाते हैं, उन आचार्य उपाध्याय के लिये हीरागल और सण का वस्त्र रखने और बहरने की आज्ञा नहीं है । तथापि जिस प्रकार आचार्य उपाध्याय को हीरागल और सण का वस्त्र श्रीविजयदेवसूरिजी महाराज की आज्ञानुसार रखना वोहरना मान्य करना है उसी प्रकार उन्हीं आचार्य के आदेशानुसार केशरिया वस्त्र का वर्ण परावर्त्तन करके For Private And Personal Use Only Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (६८) काम में लेना और पीतवर्ण वाला वस्त्र बिलकुल न रखना भी तो मानना चाहिये । क्योंकि श्रीविजयदेवसूरिजी महाराजने “કેશરિયું વસ્ત્ર હોય તો તેનો વપરાવર્તન કરી નાંખવું. બીજા ५ पीतवावासा न माढा' इन वाक्यों से साफ जाहिर कर दिया है कि-'साधुओं को वीरशासन में सफेद कपड़ा ही रखना चाहिये, लेकिन सफेद वस्त्र के न मिलनेपर कहीं केशरिया वस्त्र मिला, तो उसका वर्ण बदल किये विना काम में नहीं लेना चाहिये और पीले रंग का वस्त्र तो न लेना, और न ओढ़ना चाहिये ।' अतएव शास्त्र और प्राचार्यों की आज्ञा से यही बात अक्षरशः सिद्ध है कि----भगवान् श्रीमहावीर के वर्त्तमान शासन में शास्त्रों में कहे हुए कारणों में का कोई कारण नहीं है और यतियों की शिथिलता का कारण शास्त्रोक्त नहीं है । इसलिये साधु साध्वियों को शास्त्रोक्त मर्यादा से अल्पमूल्यवाला सफेद वस्न रखना ही निर्दोष है। ____ अब रही पिशाचपंडिताचार्य की यह आशंका कि केशग्युि वस्त्र होय तो इस वाक्य से केशरिया वस्त्र रखते थे और वहरते थे' सो निर्बलता और पिशाचता की द्योतक है । पट्टक के पेश्तर या उसी समय में केशरिया कपड़े रखते और लेते थे इससे यह शास्त्र--- विहीन प्रणाली सत्य और ग्राह्य नहीं मानी जा सकती। जिस प्रकार आज रोज आपलोग अपनी शिथिलताओं को अपवाद की पछोड़ी में छिपाने का दुराग्रह कर रहे हो, उसी प्रकार उस समय में भी दुराग्रह के वश शास्त्र-विरुद्ध केशरिया वस्त्रों के पीछे चारित्र को बरबाद करनेवाले अवश्य होंगे परन्तु शासनरक्षक प्राचार्योने For Private And Personal Use Only Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ३९ ) तो समय समय पर शास्त्रीय शुद्ध मर्यादा का प्रकाश निर्भय रीति से किया और अब भी करते ही हैं, जिसके प्रभाव से पिशाचपं - डिताचार्य के अपवाद - पादोपसेविका वचन लेख और चरणों पर भवभीरू सज्जन महानुभावों को घृणा हुई होगी और होती ही जा रही है । -X(@K+उपसंहार. सत्यान्वेषी महानुभावो ! 'इस कुलिङ्गिवदनोद्गार - मीमांसा में शास्त्रीय और आधुनिक शासनप्रेमी - विद्वानों के सत्य प्रमाणों से सभ्यता पूर्वक हरएक विषय को परिस्फुट ( जाहिर ) किया गया है और जो कुछ बातें इसमें चर्ची गई हैं वे स्वमान या किसी को बुरा दिखाने के लिये नहीं, किन्तु शासनकी रक्षा और वास्तविक सत्य वस्तुस्थिति को दिखाने के लिये ही जानना चाहिये । शास्त्र - कार महाराज भी फरमाते हैं कि कोई चाहे राजी हो अथवा नाराज, लेकिन हित करनेवाली सत्य बात को कहे विना कभी नहीं रहना चाहिये । तथा च शास्त्रकारमहर्षि: --- रूस वा परो मा वा, विसं वा परित्त । भासिया हिया भासा, सपक्खगुणकारिणी ॥ १॥ दूसरा मनुष्य बुरा मान कर चाहे रोष करे या न करे अथवा जहर खाने को तैयार हो जाय तो भी स्वपक्ष में हित करनेवाली सत्य बात कहना ही चाहिये । For Private And Personal Use Only Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org ( ७० ) Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir सत्यता वा इसी सिद्धान्त के अनुसार प्रस्तुत मीमांसा में वास्तविक सत्य का विचार लेखित है और वह आज जनता के कर-कमलों में उपस्थित है | ara इस की प्रसत्यता का निर्णय करना यह जनता के ऊपर ही निर्भर है और जनता ही इसकी वास्तविक कसौटी है । इससे जनता को चाहिये कि इसको अपनी मानसिक कसौटी पर चढा कर शास्त्रीय वास्तविक सत्य के विलासी बनें और असत्य मार्ग का परित्याग करें। एक विद्वान का कथन भी है कि " किसी धर्म या मत को प्राचीन होने ही के कारण ग्रहण मत करो । प्राचीनता उसकी सत्यता का कोई प्रमाण नहीं | कभी पुराने से पुराने मकान भी गिराने पडते हैं, तथा पुराने कपडे भी बदलने पडते हैं । नये से नया परिवर्तन भी यदि वह बुद्धि की परीक्षा में सफल हो सकता है तो वह उतना ही अच्छा है, जितना कि चमकते हुए प्रोस से सुशोभित गुलाब का फूल । ' " " जो मनुष्य अपनी भूलों और त्रुटियों को प्रगट होते नहीं देख सकता, किन्तु उन्हें छिपाया चाहता है, वह सत्यमार्ग का अनुगामी नहीं हो सकता । उसके पास लालच को पराजित करने के लिये काफी सामान नहीं है । जो मनुष्य अपनी नीच प्रकृति का निर्भय होकर सामना नहीं कर सकता, वह त्याग के ऊंचे पथरीले शिखर पर नहीं चढ़ सकता । " For Private And Personal Use Only Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७) सूचना चपेटिका के द्वारा ही चपेटा खानेवाले महाशय पिशाचपंडिताचार्य को सूचना दी जाती है कि नीचे लिखे सवालों का जवाब सभ्यता और प्रामाणिक शास्त्र सबूतों के साथ पुस्तकरूप में फाल्गुनशुक्ला पूर्णिमा के पेश्तर जाहिर करदें, ताकि पबलिक आम को उनकी सत्यता जानने और समझने का मौका मिले । साथ साथ में यह भी कह देना समुचित समझा जाता है कि चपाटेका के चपेटा सह लेनेवाले लेखक के सिवाय दूसरे कोई महाशय वीच में पंडितंमन्य बन कर उत्तर देने की तकलीफ न उठावें । क्योंकि उन मियाँमिठुओं के साथ चलते हुए प्रकरण में हमारा कोई ताल्लुक नहीं है। १ प्रश्न-असिने प्रोमोयरिए, रायदुठे भएव गेलन्ने | इस गाथा का समर्थ, स्थिर स्वतंत्र और लक्षणवाला' इत्यादि अर्थ जो तुमने किया है. सो बिलकुल शास्त्रविरुद्ध ही है । इस लिये इसकी सत्यता अथवा तुम्हारे कल्पित अर्थ के वास्ते भाष्य टीका और चूर्णि का पाठ दिखलाओ ? और यह गाथा अपवाद से वर्ण परावर्तन को दिखलाने वाली नहीं है ऐसा शास्त्र सबूतों से सिद्ध करो ? २ प्रश्न-~-गच्छाचारपयन्ना के लघुवृत्तिकार ने 'शुक्ल वस्त्र छोडने का कहा है ' ऐसा तुमने टीकाकार के विरुद्ध लिखा है, इस असत्य लिखान को सिद्ध करनेवाला तुम्हारे पास लघुवृत्ति या For Private And Personal Use Only Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७१) बहदुवृत्ति का कोई भी प्रमाण हो, तो दिखलाओ? और शास्त्रमर्यादा से वीरशासनानुयायी सफेद कपडा रखने वाले साधु साध्वी वकुश की गिनती में है ऐसा शास्त्र सबूतों से सिद्ध करो ? ३ प्रश्न-उपाध्यायजी श्री यशोविजयजी महाराजने कुगुरु सज्झाय की ८ वी गाथा में रंगीन कपडे रखनेवाले साधुओं को कुगुरु और कपटी कहा है । इसको असिद्ध करनेवाला और कुगुरु सज्झाय उपाध्यायजी की बनाई हुई नहीं है ऐसा सिद्ध . करनेवाला प्रमाण जाहिर करो ? ४ प्रश्न-निशीथचूर्णि में 'धावणे ककादिणा' इस वाक्य से कल्कादि से धोने का विधान नहीं है और शीतोदक से कपडे धोनेवालों को प्रायश्चित्त नहीं है, तुम्हारे इस कथन को सिद्ध करनेवाला प्रमाण दिखलाओ ?. ५ प्रश्न-श्री महावीर शासन में सफेद वस्त्र नहीं रखना और गाड़ी वाड़ी लाडी के प्रेमी यतियों से जुदा भेद दिखाने अथवा उन अनाचारियों से शासन को बचाने के लिये वर्ण परावर्तन कर डालना ऐसे भाव का दर्शक कोई भी शास्त्रीय प्रमाण हो उसको प्रकाशित करो? ६ प्रश्न-शास्त्रों में स्वपर को ग्लानी उत्पन्न करनेवाले और नील फूल पड़जाने की संभावनावाले मलिन वस्त्रों का धो लेने का विधान नहीं है ऐसा जो तुम लिखते और कहते हो उसको शास्त्र सबूतों से साबित करो ? For Private And Personal Use Only Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ७३ ) ७ प्रश्न--प्राचाराङ्गटीकाकार महाराजने 'एतच्च सूत्रं जिनकल्पिकोदेशेन द्रष्टव्यं, वस्त्रधारित्वविशेषणात् गच्छान्तर्गतेऽपि वा अविरुद्धम् ' इस कथन से जिनकल्पी-विषयक सूत्र को गच्छवासी के लिये भी अविरुद्ध बताया, पर तुम ऐसा नहीं मानते हो, तो इसमें प्रमाण क्या है ? ८ प्रश्न-जीर्णप्राय शब्द का अर्थ जूने जैसा ( सादा ) नहीं होता और मादा कपड़ा अल्पमूल्य नहीं होता ऐसा तुम्हारा निज मंतव्य है उसके लिये तुम्हारे पास शास्त्रीय प्रमाण क्या है ? और शास्त्रोक्त कारणों की संख्या में यतियों की शिथिलता रूप कारण बतानेवाला शास्त्र-पाठ कौनसा है ? प्रश्न-मरीचिकी विचारणा में 'सुकंधरा सपाणा' इस वाक्यसे श्वेत वस्त्र धारी समण ( साधु ) कहे गये हैं ऐसा सूत्रोक्त होनेपर भी इसको तुम अमान्य कहते हो तो इस अमान्यता का आधारभूत सबूत क्या है ? और अपवाद सावधिक नहीं होता, किन्तु ताजिन्दगी का ही होता है ऐसा शास्त्र का पाठ जाहिर करो ?. वाचको ! बस पिशाचपंडिताचार्य की कुतर्को पर अब परदा पड़ता है, वह फिर कभी यथावसर से खुलेगा और समयपर ही असत्य कुतकों से वादि होनेवाले वोपदेवों की पोपलीला का खेल दिखावेगा। इसलिये अभी तो इस मीमांसा को चुपचाप बैठे हुए दिल लगाकर खुद वांचो, अपने अपने इष्टमित्रों को For Private And Personal Use Only Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir (७४) वचाओ और बाद में लायब्रेरी के टेबल पर रखदो । 3-2 शांतिः ! शांतिः ! ! शांतिः ! ! ! शलभतां लभतां कुकुलिङ्गिमीतपटवारणपोहनकायहः । विदधतांदधतां सुविवारतां, मतिपतां पठतां मतिदाऽसुका ॥१॥ उन्मार्गप्रपतितानां, जन्तूनामुपकारिका । शासनोद्दीपिका चैषा, मीमांसा रचिता शुभा ॥ २ ॥ For Private And Personal Use Only Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पबलिक आमको सूचना .... महानुभावो ! श्रीमान् सागरानन्दसरिजी के तरफसे प्रकाशित चेलेंज और चपेटिका के मिलते ही हमारे तरफ से स्थान, समय मयप्रतिज्ञा के निश्चित करके सागरानन्द सरिजी को ता० १६-१२-२६ के मुद्रित चेलेंज के द्वारा पोपसुदि पूर्णिमा के रोज ही शास्त्रार्थ कर लेने के लिये सूचित कर दिया गया था, पर वे नियमित स्थान और टाइम पर शास्त्रार्थ के लिये हाजिर नहीं हुए, अतएव उनका पराजय स्वतः समझ लेना चाहिये । अब हम उनके तरफसे मुद्रित या लिखित किसी चेलेंज सूचना पर ध्यान नहीं देंगे। क्यों कि उन्हें शास्त्रार्थ करना ही नहीं है, इसीसे वे हरवख्त समय पर हाजिर न होकर टालाटूली से ही अपनी यहादुरी बतलाना चाहते हैं । एसी निर्बल बहादुरी से भरे चेलेंज वगैरह रद्दी-नशीन ही समझ लेना इतिशम् । मुनि या For Private And Personal Use Only Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir पबलिक आमको सूचना महानुभावो ! श्रीमान् सागरानन्दसरिजी के तरफसे प्रकाशित चेलेंज और चपेटिका के मिलते ही हमारे तरफ से स्थान, समय मयप्रतिज्ञा के निश्चित करके सागरानन्दसरिजी को ता० 16-12-26 के मुद्रित चेलेंज के द्वारा पोपसुदि पूर्णिमा के रोज ही शास्त्रार्थ कर लेने के लिये सूचित कर दिया गया था, पर वे नियमित स्थान और टाइम पर शास्त्रार्थ के लिये हाजिर नहीं हुए, अतएव उनका पराजय स्वतः समझ लेना चाहिये / अब हम उनके तरफसे मुद्रित या लिखित किसी चेलेंज सूचना पर ध्यान नहीं देंगे। क्यों कि उन्हें शास्त्रार्थ करना ही नहीं है, इसीसे वे हरवख्त समय पर हाजिर न होकर टालाटूली से ही अपनी बहादुरी बतलाना चाहते हैं / एसी निर्बल बहादुरी से भरे हुए उनके चेलेंज वगैरह रदी-नशीन ही समझ लेना चाहिये। इतिशम् / मुनि यतीन्द्र। For Private And Personal Use Only