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(४२) हैं । इन असभ्य शब्दों के लिये हमारे पास कोई उत्तर नहीं हैं। इस लिये इस प्रकार के असुन्दर वाक्य पिशाचपंडिताचार्य के मुख को ही सुशोभित करें । ठीक ही है कि
संसार एक प्रकार का कारागार है, इसमें भिन्न भिन्न रुचिवाले जीव कर्म जंजीर से जकड़े हुए पडे हैं । उनमें अपने अपने कर्मों के अनुसार कोई व्यर्थ वितंडावाद में मस्त हैं, कोई निन्दा, मश्करी और दोषारोप करने में निमग्न हैं, तो कोई अपने जातिस्वभाव के कारण अनाचार सेवने और बुरे अल्फाज लिखने बोलने में ही अपनी बहादुरी समझते हैं । अपसोस ! ! अंधश्रद्धा का प्राशापाश भी विचित्र प्रकार का होता है, वह मनुष्यों को अच्छे मार्ग में प्रवेश करना तो दूर रहा, पर उसके संमुख भी नहीं होने देता ।”
अपवाद सेवको ! याद रक्खो इस बुद्धिवाद के जमाने में जब तक निज मान्यता (गद्धाटेक) के लिये कोई शास्त्रीय पुरन्ता ग्रमाण पेश नहीं करोगे, तब तक वह सभ्य-समाज में आदर की दृष्टि से नहीं देखी जा सकती। प्रत्युत शास्त्र रहित मान्यता ( गद्धाटेक ) के लिये तो वही मुठरिया साहब के खिताब मिलेंगे कि-'सिंह फाल भ्रष्ट हो गया' 'अभिमान के बद्दल उड़ गये' ' गुजरात की कमाई, मालवा में गमाई ' 'फाकं फाका भी फक हो गई ' इत्यादि ।
पू०-~-वस्त्र परावर्त की परम्परा शोभा के लिये नहीं हुई है लेकिन शासन की रक्षा के लिये ही हुई है, इतना होने पर भी
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