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करनी पडती हैं । इतना ही नहीं, लेकिन शासनरसिक घरभेदु मणि विजयजी को उपधान की रंगशाला विखेरने के लिये हेन्ड - बिल भी निकालना पडते है, उनको नो शास्त्रकारने वकुश में भी नहीं गिना और न उनके पडिकमण को द्रव्य आवश्यक में ही गिना । कहिये लेखक महाशय ! भगवान् वीरप्रभु के श्रमण और उनके शासनानुयायी हरिभद्रसूरि, विजयहीरसूरि आदि कई सफेद कपडे रखनेवाले ही थे, तो क्या वे आपके कामशास्त्र के हिसाब सेकामी और कुश थे ? और उनका प्रतिक्रमण द्रव्य आवश्यक में था ?
पाठको ! देखा पिशाचपंडिताचार्य की अक्लमंदी का खजाना, जिसमें वीरप्रभुके श्वेतवस्त्रधारी मुनिवरों को, हरिभद्राचार्य और जगद्गुरु विजयहीरसूरिजी जैसे प्रखर शासननायकों को भी वकुश ठहराने और कामी बनाने की धीठता भरी पड़ी है। ऐसे शासननिन्दकों को जिनाज्ञा-भंग करने के दोषी भी कह दिये जाय तो कोई हरकत नहीं है । अथवा ऐसे कलंकारोपी लोगों के लिये रक्षा भस्म और भस्मी शब्द एकार्थतारूप से रूढ कर दिये जायें तो अनुचित नहीं है । ठीक ही है कि ' आग्रहकी दृष्टि संसार में किस नर्थ को नहीं कराती ? '
पू० - जो आज काल वर्णपरावर्त्तित वस्त्रवाले है वो ही पूजने लायक गिने गये हैं और त्यागी माने गये हैं और यही बात इस कुतर्कानृतवादि को द्वेष करने वाली हुई है, इसी से इसने संवेगी शासनरक्षकों की निन्दा शुरू की है पृष्ठ - ३०.
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