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(६३)
कहाँ तक ? अन्धभक्तों के शरण तक । कहावत भी है किमियां की दोड कहाँ तक ? मसीद तक । बस खैर ! खैर ! ! बाबा !! चुपचाप बैठे हुए अब खैर मनाओ ! ! !
पुनरावलोकन__ पाठकवर ! इस पुस्तक को समाप्त करते हुए चपेटिका के लेखक पिशाचपंडिताचार्य की वे तीन बातें, जो उसने अपनी पिशाचता दिखलाने के लिये, अथवा यों कहिये कि निज जन्म को बरवाद करने के लिये लिख डाली हैं | उनका भी फिर से अवलोकन कर लेना अनुचित नहीं है। उनमें से प्रथम बात यह है कि" असिवे श्रोमोयरिए, रायदुठे भए व गेलन्ने ।
सेहे चरित्तसावय, भए व जयणाए गिहिज्जा ॥ समर्थ, स्थिर, स्वतंत्र, और लक्षणवाला वस्त्र न मिले तब असमर्थादि विशेषणवाला वस्त्र भी अशिवादि कारणों में यतना के साथ लेना. पृ० ६."
देखिये ! पिशाचपंडिताचार्य के मलिन हृदय से निकले हुए इस अर्थ की ऊपर दी हुई गाथा में कहीं गंध तक भी है !, बस ऐसे ही उटपटांग ( अंडबंड ) अर्थ करके अपवाद के हिमायती पिशाचपंडिताचार्यने स्व-पर का जन्म बरबाद किया है ! दर असल में इसीका नाम दुराग्रह है और ऐसे दुराग्रही लोग सूत्रोंके अर्थ, पाठों का फेरफार और कहीं का पाठ कहीं लगा देना आदि अनर्थ कर डाले तो कोई आश्चर्य नहीं है। क्योंकि दुराग्रही लोगों का
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