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" गेहेषु पण्डिताः केचित् , केचिद् ग्रामेषु पण्डिताः । सभायां पण्डिताः केचित् , केचित्पण्डितपण्डिताः ॥१॥"
-कई लोग घर में ही पंडित बनते हैं और कई लोग ग्राम में ही, कई पांच दश अपढ़ लोगों के जमाव में अपनी पंडिताई छांटते हैं, परन्तु पंडितों के बीच में तो पंडित कोई विग्ला ही होता है।
आगे आनन्दसागरजीने यह सोच समझ कर कि अपने अंधभक्तों के गाँवों में अपना मनमाना हुल्लड़ और अंडबंड उन्मत्त प्रलाप करके, इतना ही नहीं बल्कि जिस तरह चाहेंगे उसी तरह अपने मनमोदक सफल कर लेवेंगे और अंधभक्तों के सहारा से अपनी विजय पताका फरकने लगेगी। इसी हेतु को मन में रख कर चपेटिका के द्वारा जाहिर किया है कि___अव तुम भी मारवाड़ के इस भाग में हो और हम भी इसी भाग में हैं, तो चातुर्मास के बाद नयाशहर, पाली, जोधपुर और सिरोही जस कोई भी प्रसिद्ध स्थल में शास्त्रार्थ करने की पासशुक्ला पूर्णिमा के पेश्तर की मुद्दत और उस विषय ( अपवाद पर भी रंगीन कपडा नहीं होना चाहिये ) की प्रतिज्ञा जाहिर करके आना लाजिम है । पृष्ठ--३७.
पाठकों ! देखा आनंदसागरजी की निर्बलता का नमूना ?, आपने वे प्रसिद्ध स्थल दिखाये हैं, जहाँ कि केवल लकीर के फकीर अन्धभक्त ही है और वे प्रायः पिशाचपंडिताचार्य और अपवाद सेवकों के ही श्रद्धालु हैं। भला ! इस प्रकार के एक पक्षी क्षेत्र
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