Book Title: Kulingivadanodgar Mimansa Part 01
Author(s): Sagaranandvijay
Publisher: K R Oswal

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Page 69
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir हुए पत्र जो जुदे जुदे तीन लेखकों के हमे प्राप्त है, जो संवत १७६४, १८५२ और १६२१, अनुक्रम से लिखे हुए हैं । उन तीनों प्राचीन-पत्रों में तो 'रंगेल कपड़ा खंभे धावली' ऐसा ही पाठ है. इससे मालूम होता है कि सम्झायमाला में छपाते वक्त किसी रंगीन कपड़ेवालेने जान बूझ के फरकार का दिया है, लेकिन प्राचीन पत्रोंका ही पाठ सही है । इसके अलावा शा. कचगभाई गोपालदास अमदावाद, बडीपोल के तरफ से सं० १६५० में मुद्रित · जैनसिज्झायमाला' भाग २ के पष्ट १४६ में रंगेल कपडा खंभे धावली' ऐसा ही छपा है। ___ कदाचित् थोडी देर के लिये पिशाचयंडिताचार्य के लिखे अनुसार ' काला कपडा खंभे धावलीमा ही पाठ मान लिया जाय तोभी क्या सिद्धि हुई ? क्योंकि उसी सज्झायमाला में छपी हुई उसी सज्झाय की आगे की ८ वी गाथा को देखो ! "आचारांगे वस्त्रनो भाष्यो, श्येन में पानी न । ते तो मारग दूरे मूक्या, कपडा । हेत ।। जि० ॥८॥" अर्थात्-आचारांगमूत्र में साधु के लिये श्वेत मानोपेत वस्त्र रखना फरमाया है, उसको छोड़कर जो साधु कपड़ा रंगते हैं, वे साधु नहीं, कुगुरु हैं। इसमें उपाध्याय जी श्रीयशोविजयजी महाराजने रंगीन कपड़ेवालों को भी कुगुरू कहा है। इतना ही नहीं, बल्कि सज्झाय की आंकणी में तो रंगीन कपड़ेवालों को कपटी का सुन्दर खिताब भी देदिया गया है । लो फिर भी वांचलो “ जिणंदे कपटी कहिया पह, एहनुं नाम न लीजे जि." For Private And Personal Use Only

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