Book Title: Kulingivadanodgar Mimansa Part 01
Author(s): Sagaranandvijay
Publisher: K R Oswal

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Page 70
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ( ६७ ) तीसरी बात पिशाचपंडिताचार्य की यह है कि आचार्य श्रीविजयदेवसूरिजी के पट्टक में ही लिखा है कि--- • આચાર્ય ઉપાધ્યાય સિવાય બીજા યતિએ તેમજ ગીતાર્થે હીરાગલ વસ્ત્ર તથા શણનું વસ્ત્ર ન હેારવુ. કદાચ આચાર્ય આદિક દીધુ હોય તો પણ ઉપર નહિં એવું કેશરયું વસ્ત્ર હાય તો તેનુ વર્ણ પરાવર્ત્તન કરી નાંખવું. બીન્ત પણ પીતવણું - पाला वस्त्र न ओढवा.' इस पट्टक से प्राचार्य और उपाध्याय को हीरागल और सण का वस्त्र रखने की और वहरने की छूट हुई है तो फिर वह बात क्यों नहीं मानना ? इतना ही नहीं, लेकिन • केशरियं होय तो ' इस वाक्य से केशरिये रंग के वस्त्र रखते थे और वहोरते थे, पृष्ठ--६. पंडितंमन्य ! वे प्राचार्य उपाध्याय जो जैनशासन के रक्षक और राजमान्य होते हैं और जिन्होंके चरण-कमलों में बड़े बड़े राजा महाराजा शिर झुकाते हैं, उन्हीं प्राचार्य उपाध्याय के लिये हीरागल और का वस्त्र रखने और वहरने की आज्ञा है । • लेकिन तुम्हारे जैसे जो हजारों रुपैया भेट कर और वीसों दफे मिलने की आजीजी करा कर खुशामद के साथ एक दो सामान्य ठाकुर या दीवान को बुलाते हैं या खुद खुशामद करनेके लिये उनके घर पर जाते हैं, उन आचार्य उपाध्याय के लिये हीरागल और सण का वस्त्र रखने और बहरने की आज्ञा नहीं है । तथापि जिस प्रकार आचार्य उपाध्याय को हीरागल और सण का वस्त्र श्रीविजयदेवसूरिजी महाराज की आज्ञानुसार रखना वोहरना मान्य करना है उसी प्रकार उन्हीं आचार्य के आदेशानुसार केशरिया वस्त्र का वर्ण परावर्त्तन करके For Private And Personal Use Only

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