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(३८) जायगी । भला ! जिन्हें पूरा शब्दबोध नहीं और न पूरी हिन्दी लिखना याद । वे लोग भाष्य-टीकाकारों के मार्मिक प्रमाण-पाठों का अनुवाद कर लें, तो फिर विचारे विद्वानों को तो घास काटने के ही दिन उपस्थित होंगे। दर असल में दुनियां में ऐसे ही अनुवादकों के लिये यह कहावत चालू हुई हैं कि-' बड़े बड़े वहे जाय, गड्डमिया थाह मांगे ।' अथवा 'जहाँ हाथी ऊंट बहे जायँ, वहा गदहा कहे पानी कितना ?'
पाठको ! ऊपर दिये हुए भाष्य-टीका के पाठ में वरवर्ण- . सिद्धि के अनुवादक ने 'वरं मे वस्त्रेण सह न योगः --मुझे नवीन वस्त्र का संसर्ग न हो, 'कारणे तु'-किसी खास कारण से, और 'शुचिभूतं वस्त्रं '-अच्छा, उज्ज्वल, स्वच्छ
आदि जो अर्थ किया है, वह बिलकुल उत्सूत्र ( गल्त-शास्त्रविरुद्ध ) है । क्यों कि भाष्य-टीकाकार मलिनवस्त्र को धोने का अधिकार कह रहे हैं, उसके बीच में उज्ज्वल स्वच्छ वस्त्र को बताने की आवश्यकता ही क्या है ? । इस प्रकार के उत्सूव-भाषण के लिये पिशाच पंडिताचार्य को चपेटिका का चपटा लगा देना ही वस होगा । वह यह कि- “उस्सुत्तभासगाणं वोही णासो अणंत संसारो"--सूत्र विरुद्ध बोलनेवालों का सम्यक्त्व नाश पाता है, अर्थात् वह मिथ्यादृष्टि गुणठाणे जाता है, और आइन्दे अनन्त संसार में रुलता है, इसी विषय में कलिकालसर्वज्ञ श्रीहेम.. चन्द्रसुरिजी भी फर्माते हैं कि---..
अल्पादपि मृषावादाद, रौरवादिषु संभवः । अन्यथा वदतां जैनी वाचं त्व ह ह का गतिः ॥ १॥
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