________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
(३७) हो और वह सांसारिक अवस्था में वैभवादि सामग्री से आनंदित रहा हो । उम वैभवशाली नर को मलीन वस्त्र से घृणा होना स्वाभाविक है । यदि वह मनुष्य चारित्रवान है तथापि इच्छा करे कि मैं स्वच्छ वस्त्र पहिर्नु तो ठीक है । तो यह कदापि दूषित नहीं बन सकता । और यही श्राज्ञा साध्वियों के लिये भी है । इस समयसूचक आज्ञा से टीकाकार महागज भी सहमत होते हुवे कहते हैं कि
विभूपा जो है वह लोभदोष से ही है तथा कारणसे वस्त्र धोकर पहिनना बुग नहीं है और न दोष है । लेकिन किसके लिये नहीं है वह बताते हैं ---- ___ कोई महानुभाव राज्यऋद्धि पाया हुवा था या वैभवशाली कोई धनिक साहूकार था और दीक्षित हो गया है। उसके मनमें विचार आया कि मैं मलिन वस्त्र से मूर्ख और अज्ञानी लोक से हलका दिखुंगा या सामान्य लोग मेरी निन्दा करेंगे या कहेंगे कि इसको किसी देवता-पिशाचने श्राप दिया जिससे यह ऐसी अनुपम अलभ्य ऋद्धि सिद्धी का त्याग कर साधु बन गया और अब मलीन वस्त्र पहिने फिरता है। ऐसा भाव मनमें उत्पन्न हो । वह साधु हो या साध्वी अच्छे वस्त्र को पहिने तो दूषित नहीं माना जाता ।
वस्त्रवर्णसिद्धि. पृष्ट ४१-४४. वस्त्रवर्णसिद्धि पुस्तक के लेखक महाशयने सूत्र-पाठ के अर्थ करने में कितनी कपोल- कल्पना को है ? यह वात अनुवाद को मूल-भाष्य-टीका के साथ मिलाने से पाठकों को स्वयं विदित हो
For Private And Personal Use Only