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(४०) गणावच्छेदक, रत्नाधिक, साधु और साध्वि को भी स्वपर को घणा उत्पन्न करनेवाले मलमलिन वस्त्र को क्षार वगैरह से धो लेने में शोभा और दोष नहीं है।
आगे चपेटिका के पृष्ठ १८ में पिशाचपंडिताचार्यने आचारागसूत्र के 'नो धोएज्जा' इसकी टीका का अवतरण देकर इस बात की कोशीश की है कि यह पाठ स्थविरकल्पिक विषय का नहीं है, किंतु जिनकल्पिक विषय का है। कुलिंगियो ? “जग अंधता को एक तरफ रखकर उसी आचागंगसूत्र के 'नो धोएज्जा' पाठ की टीका को पूरी देखो तो सही, उसमें क्या लिखा है ?--
एतच्च मूत्रं जिनकल्पिकोद्देशेन दृष्टव्यं, वस्त्रधारित्व विशेषणात् गच्छान्तर्गतेऽपि वा अविरुद्धम् ।' अर्थात्-ये सूत्र जिनकल्पिक के उद्देश से दिखाये गये हैं परन्तु 'वस्त्रधारित्व' ऐसा विशेषण होने से स्थविरकल्पिक के विषय में भी समझ लेना विरुद्ध नहीं है । पर अरे वावा ! अपवाद की मौज-मजाह लूटने में इतना देखने की फुरसद किसको है ? इससे अपने आप मूर्ख बन जाना अच्छा है, ऐसा करने से अनाचारों का मेवा चखने तो मिलेगा।
पू०-कपड़ा तो उज्ज्वल रखना है, विना वारिस के टाइम वार २ धोना है, और शास्त्रकार के नाम से अपने अनाचार को छपाना है, लेकिन अनाचारियों से बचने के लिये शास्त्रों के वाक्यों को सोचकर किया हुआ परावर्तन मान्य नहीं करना
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