________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
--" स्वल्प मृषावाद से भी आदमी का जन्म सातमी नरक के रौरव आदि नरक स्थानों में होता है तो फिर जो लोग जिनेश्वर महाराज की वाणी को ही दूसरी तरह से बोले उसकी तो गति ही क्या होगी ? याने उसकी गति श्रुतज्ञानी नहीं जान सक्ता है कि कितने भव की होगी."
देखो ! चपेटिका पृष्ठ १-२. वस चपेटा लग गया । अब मूल मुद्दे की तरफ झुकिये ! भाष्य-टीका के उक्त पाठ और उसके अनुवाद से नीचे लिखी तीन बातें निर्विवाद और निःसन्देह सिद्ध हो गई।
१ एक तो यह कि---वर्षाकाल के सिवाय के काल में भी स्वपर को घृणा ( ग्लानी) पैदा करनेवाले मलिन वस्त्रों को गोमूत्रादि ( क्षार वगैरह ) से धो लेने में शोभा और दोष नहीं है।
२ दुसरी यह कि-मलिन बस्त्र लोक में मूर्ख, अज्ञानी और हलका दिखानेवाले होते हैं और लोगों को वैसे मलिन वस्त्रों से निन्दा करने का मौका मिलता है अतएव मलमलिन वस्त्रों को यतना से धो लेना भाष्य-टीका सम्मत है।
३ तीसरी यह कि-सांसारिक अवस्था में वैभवादि सामग्री से आनंदित रहा हो उस साधु साध्वी को मलिन वस्त्र से घृणा होने का कथन भाष्यकार का होने पर भी भाष्य में दिये हुए आदि शब्द को लक्ष्य में रख कर 'आदि शब्दादाचार्यादेरप्येवमेव' टीकाकार महाराज के इस कथन से आचार्य, उपाध्याय, गणी,
For Private And Personal Use Only