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(३६) ऋद्धिं विहाय प्रत्रजितः सन् चिन्तयति-मा अमुना मलक्लिन्न वाससा अबुधजनस्य इहलोकापतिबद्धस्य हीलनीयो भविष्यामियन्नूनं केनापि देवादिना शापशप्तोऽयं यदेवमेतादृशीं ऋद्धि विहाय साम्मतं ईदृशीं अवस्थां प्राप्तः, अादिशब्दादाचार्यादिरप्येवमेव शुचिभूतं वस्त्रं प्रावणोति, संयत्यपि ऋद्धिमत्प्रजिता नित्यं पाण्डुरपट्टप्राकृता तिष्ठति वा।
भावार्थ:-साधु अपने मैले कुचले वस्त्र देख मनमें विचार करे कि मैं ऐसे मलिन वस्त्रों से बुग मालूम होता हूं । इसलिये इन को स्वच्छ बनाने की तजबीज करूं तो ठीक है, एसे विचार से याने वस्त्रों का मलिनपना अप्रिय हो जाने के कारण उन्हें तत्काल शुद्ध करना चाहिये. ऐसे प्रयत्न में लग के गौमूत्रादि (क्षार वगैरह) जिनसे वस्त्र शुद्ध हो जाता हो उनको प्राप्त करने की कोशीश करे,
और सोचे कि मुझे नवीन वस्र का संसर्ग न हो तो अच्छा क्योंकि मलिनवस्त्र पहिनने से तो न पहिनना अच्छा होता है । इस जगह टीकाकार विशेष स्पष्ट करते फरमाते है कि किसी खास कारण से वस्त्र धोनेवाला भी शुद्ध गिना जाता है. लेकिन शंका होगी कि 'वस्त्र धोने से शोभा होगी और मुनिको विभूपा करना उचित नहीं है ' क्योंकि विभूषा और कंचन, कामिनी के संसर्गसे चाग्निवंत महात्मा तो अलग रहते हैं ? इसके उत्तर में भाष्यकार महागज फरमाते हैं कि भो शिष्य ! शोभा--विभूषा है. वह लोभसंज्ञा से है, लेकिन उज्ज्वलवस्त्र पहिनने से कोई दृषित नहीं बन सक्ता | क्योंकि किसी ऋद्धिमान महानुभावने या राज्यपुत्रने चारित्र ग्रहण किया
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