Book Title: Kulingivadanodgar Mimansa Part 01
Author(s): Sagaranandvijay
Publisher: K R Oswal

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Page 38
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir की जरूरत नहीं । खैर जो धोना भी नहीं मानते थे, वे अब शास्त्रोक्तरीति से वस्त्र धोने पर तो मजबूर हुए । अब रहा चौमासे के सिवाय धोने का सवाल । इस के लिये शास्त्रीय प्रमाण रूप में उत्तर पिशाचपंडिताचार्य के प्रियमित्र श्रीयुत चन्दनमलजी नागोरी के नाम पर निछरावल की हुई वस्त्रवर्णसिद्धि नामक पुस्तक का ४६ वें नम्बर का प्रमाण ही बस समझना चाहिये । वह यहाँ ज्यों का त्यों भावार्थ समेत उध्धृत कर दिया जाता है किमर्थ पुनविर्भूषां आसेवते ? इत्याह-" मलेण वच्छं बहुणा उ वत्थं उज्झाइगोऽहंवि विणा भवामि । हं तस्स धोवम्मि करेमि तत्ति, वरं न जोगो मलिणाण जोगो॥३१२॥" इदं मदीयं वस्त्रं बहुमलेन ग्रस्तं-आपूरितं, अतोऽनेनाई 'उज्झागो' विरूपो भवामि, यतश्चाहं विरूप उपलभ्ये ततस्तस्य धौतव्ये तप्तिमहं करोमि, येन गोमूत्रादिना शुध्यति तदानयामित्यर्थः, कुत? इत्याह-वरं मे वस्त्रेण सह न योगा, परं मलिनवस्त्रप्रावरणादप्रावरणमेव श्रेयः इतिभावः, कारणे तु वस्त्रं धावन्नपि शुद्धः, परः पाह-ननु वस्त्रधारने विभूषा भवति, सा च साधूनां कर्तकल्पते 'विभूसा इत्थिसंसग्गी इत्यादि वचनात् । सूरिराह-'काम विभूषा खलु लोभदोषा, तहावितं पाउणो न दोसो मा हीलणिज्जो इमिणा भविस्सं, पुव्यिड्डिमाई इय संजईवि।।३१३ ।। " काम-अनुपतं एनत् खलुः अवधारणे पैषा विभूषा लोभदोष एव, तथापि तद्वस्त्रं शुचिभूतं कारणे कृत्वा प्राणवतो न दोषः, कस्य ? इत्याह-पूर्व राजादिक ऋद्धिमान् आसीत् स तादृशी For Private And Personal Use Only

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