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( २८) अपेक्षा से साधुयोग्य श्वेत वस्त्र को छोडकर लाल वस्त्रों का और नील पीत विचित्र प्रकार के भाँत से भरे हुए वस्त्रों का हमेशा (निरन्तर ) निष्कारण परिभोग किया जाता हो, तो उस गच्छ में कौनसी मर्यादा है ?, कुछ भी नहीं।"
वृत्तिकार महाराज के दिए 'सदा निष्कारणं व्यापारः' और 'परित्यज्य शुक्लवस्त्रं ' इन दोनों वाक्यों से ऐसा साफ जाहिर हो जाता है कि श्री ऋषभदेव और महावीर भगवान के शासन में जो साधुयोग्य सफेद कपड़ों को छोड के हमेशा पीत, नीलादि रंगवाले वस्त्र पहिनते हैं वे गच्छ मर्यादा से भ्रष्ट हैं और हमेशा सफेद वस्त्र रखनेवाले साधु गच्छ मर्यादा में हैं । " इससे उक्त वृत्ति-पाठ में " श्वेतवस्त्रधारी साधुओं को गच्छ मर्यादा वाला कहा और पीले नीले आदि रंगीन वस्त्रों के सदा परिभोग करनेवाले साधुओं को गच्छ मर्यादा से भ्रष्ट कहा है।" ऐसा निर्विवाद सिद्ध हुआ, परन्तु ऐमा न्यायसंगत शुद्ध अर्थ को विचारे पिशाचपंडिताचार्य करने लगे तो उनकी प्रापवादिक मागे पोपलीला का परदा ही फक् बोल जावे । ___ इसी प्रकार साध्वी विषयक गच्छाचारपयन्ना के वृत्ति---पाट के अर्थ में पिशाचपंडिताचार्य ने जितना कपोल--कल्पित प्रलाप किया है वह सब उन्मत्त--प्रलापवत् ही समझ लेना चाहिये । महानुभावो ! जैसा पेश्तर का संवेगी शब्द निज गुण के अनुसार अच्छे व्यक्तियों के लिये रूढ हुआ था, वैता वर्तमान में नहीं है । वात्तमानिक पिशाचपंडिताचार्य ने अपवाद के परदे में बैठे हुए अत्याचारों के
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