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भारी दोष जिनाज्ञा भंग है, जब जिनाज्ञा भंग हुई तो फिर मूल
गुण और सम्यक्त्व रह ही कैसे सकता है ? इसको जरा अपवाद का परदा हटाकर सोचो । ठीक ही है कि वत्थिकम्म शब्द के अनुवासनारूप अर्थ को छोड़कर नख रोम आदि का समझ जानेवाले पिशाचपंडिताचार्य शुचि से भरे हुए हाथ पैरों को धोने में भी शोभा समझ लेवें तो कौन आश्चर्य है ?
पू० -- ' जो धावत्सूसमतीव वात्थम । ' याने जो साधु वस्त्र को धोता है या काटकर छोटा करता है या छोटे को बडा करता है उसको संयम नहीं होता है ऐसा तीर्थकर और गणधर महाराज
फर्माते हैं, पृष्ठ- १४.
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उ -वस्त्र को प्रमाणोपेत बनाने के लिये फाड कर छोटा बडा किया जाय और नीलफूल आदि अनंतकाय की रक्षा के लिये उसको यतना पूर्वक चित्तजल से धो लिया जाय तो इसको तीर्थकर गंगाधर महाराजने असंयम नहीं कहा। असंयम कहा है इसको जो खास शोभा के लिये ही साधुओं के धोवियों के समान गड पट्टे लगा कर वस्त्रों को स्वच्छ किये जायँ और भवकेदार पीले केशरिया बनाये जायँ ।
वस्तुतः देखा जाय तो सूत्रकृताङ्ग के ७ वें कुशीलपरिभाषा अध्ययन का पाठ उन्हीं भ्रष्टाचारियों के लिये समझना चाहिये जो शोभादेवी के वास्ते अकारण को कारण बनाकर उत्सूत्र प्ररूपण करते हुए रंगीन झगमगाहट में आनंद मान रहे हैं । याद रक्खो कि धोने के लिये तो भाष्य और टीकाकार महाराजाओं की
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