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अधिक बढ़ा चढा हुआ नजर आ रहा है । जिसके प्रमाणभूत ऊपर दिये हुए गुनराती पेपरों के फिकरे साक्षी स्वरूप समझना चाहिये। सबब कि विचारे आधुनिक यति तो " हम साधु नहीं, परीग्रह धारी हैं, हमारे में साधुओं के प्राचार-विचारों की गंध तक नहीं है।" ऐसा खुद अपने मुंह से जाहिर कर रहे हैं, इससे उनमें और कुछ नहीं तो धार्मिक निष्कपटता तो पाई जाती है। परन्तु अपवाद का आश्रय लेनेवाले पिशाचपंडिताचार्यों के हठाग्रही गुरुत्रों में तो उतना भी गुण नहीं है। आखिर मान लेना पड़ा
"यह एक कुदरती नियम है कि संसार में बे मनुष्य जो सत्य के द्वेषी, असत्य के प्रेमी मताग्रही और अपवाद के शरणाग्न हैं । सत्य के वन्नमय दृढ़ किल्ले को तोड़ने के लिये जब अपरिमित हुल्लड, अपरिमित भोपा-धूण और अपरिमित हृदय की मलिनताओं को भी अपनी काली कीर्ति का हथियार बना करके वन्नमय सत्य के किल्ले को तनिक भी नहीं खिसका सकते । तब वे विवस होकर अंत में या तो अपने हृदय की मलिनता जाहिर करके, या असली बात को रूपान्तर से मंजूर करके सुख मान बैठते हैं और फिर वे लोगों में अपनी बहादुरी दिखाने के लिये गुनगुनाया करते है । जैसे कि अतिस्वच्छ रजनी में जुगनु (खद्योत ) का चमत्कार ।"
इसी प्रकार चपेटिका के लेखक महाशय और उनके पिशाचपंडिताचार्यने वीरप्रभु के शासन में जैन मुनिगजों को सफेद कपड़े ही रखना चाहिये, इस शास्त्रीय कथन के सत्य किल्ले को तोड़ने के
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