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(२३) लिये शक्तिभर प्रयत्न भी किया, अन्धभक्तों में उस्केरणी भी की,
अपनी मनोमलिनता को भी उगली और गज्य का भी शरण लिया; तथापि उनको सत्य के किल्ले को तोड़ने से मजबूर (लाचार) होना पड़ा और अन्त में उनको चपेटिका के तमाचे सह करके निर्विवाद चपेटिका के द्वाग ही मान लेना पड़ा कि---
"रंगीन कपड़े पहिननेवाले रंगीन कपड़े के आग्रही नहीं है, और न वे लोक महावीर महाराज से ही रंगीन पहिनने का ही नियम था ऐसा मानते हैं. न रंगीन में ही धर्म है ऐसा मानते हैं। "
चपेटिका-पृष्ठ ३, पंक्ति ६. महानुभावो ! समझलो कि चपेटिका के इस उद्गार (लेख) से कैसी स्पष्ट बात जाहिर हो जाती हैं । वह यह कि " महावीर प्रभु से वस्त्र रंगने का या रंगीन रखने का नियम नहीं था, इसलिये रंगीन कपड़े रखने में धर्म नहीं है " ऐसा हम (अपवाद को माननेवाले ) अाग्रह रहित हो करके मानते हैं इसके लिये आप लोग हमारे पीछे क्यों पड़े हैं।
अगर चपेटिका के वाक्य को लक्ष्य में रखकर विचारा जाय तो-'न वे लोक महावीर महाराज से ही रंगीन पहिनने का ही नियम था ऐसा मानते हैं ' अर्थात् अपवाद के हिमायती लोग वीरप्रभु के शासन में रंगीन कपड़े पहनने का नियम नहीं मानते । इसलिये 'न रंगीन में ही धर्म है ऐसा मानते हैं' अर्थात्रंगीन कपड़े पहिनने और रखने में धर्म नहीं है । अतएव 'रंगीन कपड़े पहिननेवाले रंगीन कपड़े के आग्रही नहीं है ' अर्थात्
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