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(११) शासन है जो कि इक्कीस हजार वर्ष पर्यन्त बराबर चलता रहेगा। अतएव वीरशासन को मान्य ग्खने वाले साधु, साध्वियों के लिये वेत, मानोपेत, जीर्णप्राय और अल्पमूल्य वस्त्र ही रखने की जैनागम और प्रामाणिक-ग्रंथों की आज्ञा है।"
२-" यनि शिथिल हुए उनसे जुदा भेद दिखलाने के लिये वस्त्रों का वर्ण बदल कर लेना चाहिये, एसी अाज्ञा किसी जैनागम और प्रामाणिक जैनग्रन्थों में नहीं है। इसलिये गाड़ी वाड़ी लाड़ी के प्रेमी यतियों की शिथिलता को अपवाद मानकर वस्त्रों का वर्ग बदल करना अनुचित और शास्त्र-मर्यादा से रहित है । "
६. श्वेतवस्त्रों के न मिलने पर कदाचित कहीं केशरिया या पीला वस्त्र मिले, नो साधु साध्वी उसको वर्ण बदल करके अपने काम में लेवे ऐसी श्राचार्यों की आचरणा है, लेकिन प्राप्त श्वेत वस्त्र के वर्ण को बदलने की आचरणा नहीं है।" .. ४" वर्ण परावर्तित-वस्त्र विषयक शास्त्रों में जो जो कारगा बतलाये गये हैं उनमें का वर्तमान में कोई भी कारण उपस्थित नहीं हैं. । अतएव वर्तमान में शास्त्रोक्त कारणों की अनुपस्थिति होने से रंग हुए वन रखना और वस्त्रों का रंगना अनुचिन
५-" शास्त्रों में पांच प्रकार के वनों का जो स्वरूप बताया गया है उनमें 'पञ्चविधे वस्त्रे प्ररूपितेऽपि उत्सर्गतः कार्पासिकौणिक एवं ग्राह्यते । ' टीकाकारों के इस कथन से कपास के
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