Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 14
________________ आत्मनिवेदन मुझे अत्यधिक आनन्दका अनुभव हो रहा है कि अध्यात्मपदकी प्रतिष्ठा करनेवाले करणानुयोगमें कषायप्राभृत और जयधवलाका प्रारम्भसे लेकर अन्त तक के परमागम अनुयोग का अनुवाद सहित सम्पादन करने का अवसर मिला | सन् १९४१ में श्रीषट्खण्डागम से हटने के बाद मुझे वाराणसी श्री दि. जैन संघ मथुराकी ओर से बुलाया गया था। उस समय मान्य स्व० पं० राजेन्द्र कुमारजी शास्त्री मथुरा संघ की वाग्डोर सम्हाले हुए थे । बुलाने का प्रयोजन कसायप्राभृत-जयधवला के सम्पादन-अनुवाद का था। प्रारम्भमें यह व्यवस्था की गई कि मैं पूरे समय तक इसका अनुवाद व सम्पादन करूँ। मेरी सहायता के लिये स्व. मान्य पं० कैलाशचन्दजी शास्त्री और स्व० मान्य पं० महेन्द्रकुमारजी न्यायाचार्य आधे समय तक रहें। __स्व० मान्य पं० कैलाशचन्दजी जो मैं अनुवाद करता था उसे देखते थे तथा स्त्र० मान्य पं० महेन्द्र कुमारजी टिप्पण का भार सम्हालते थे। प्रथम भाग के मुद्रित होने तक यह क्रम चलता रहा। उसके मुद्रित होनेके बाद न्यायाचार्यजी संस्थासे हट गये। किन्तु स्व० मान्य पं० कैलाशचन्दजी उससे जुड़े रहे। द्वितीय भागके सम्पादित होकर मुद्रित होने पर कुछ समय बाद वे भो सम्पादनअनुवाद करने के उत्तरदायित्वसे अलग हो गये । इस विभागके मन्त्री पदको वे सम्हाले रहे । उसके बाद में ही इस कामके सम्पादन-अनुवादमें लगा रहा। कुछ समय के बाद मैंने किसी प्रकारकी अड़चन आनेके कारण संस्था छोड़ दी। फिर भी अनुरोध को ख्याल में रखकर इस काममें लगा रहा । अब कषायप्राभृत-जयधवलाके उत्तरदायित्व से मुझे निवृत्त होनेका समय आगया है। क्योंकि इस महान् ग्रन्थ के सम्पादन-अनुवाद का काम पूरा हो गया है । ____ मान्य पं० कैलाशचन्दजी अन्त तक संस्थामें साहित्य विभागका उत्तरदायित्व सम्हाले रहे। इसलिये प्रत्यक्ष में उनसे बातचीत होती रही। उनकी इच्छा थी कि इसके १६ भागों का संक्षिप्त विवरण लिखकर मुद्रित करा दिया जाय और कषायप्राभृत-जयधवलाके प्रत्येक भाग का शुद्धिपत्र मुद्रित करा दिया जाय । - मुझे प्रसन्नता है कि प्रत्येक भागका शुद्धिपत्र मुद्रित होनेके लिये वाराणसी भेज दिया गया है और वह छप भी गया है। इसमें स्व. पं० रतनचन्दजी मुख्तार सहारनपुर और श्री पं० जवाहरलालजी सि० शा० भिण्डर का सहयोग मिला है। उन दोनों के सहयोगसे यह काम मैं पूरा कर सका हूँ। स्वपं. रतनचन्दजी मुख्तार जिस समय प्रत्येक भाग मुद्रित होता था वे बुलाकर उसका स्वाध्याय करते थे और मुद्रणके समय प्रूफरीडिंग और प्रेसकी असावधानीके कारण जो अनुवाद या मूलमें छूट रह जाती थी उसे वे जैनगजटमें मुद्रित कराते जाते थे। वे उस प्रकार की छूट या अशुद्धिको मेरे पास नहीं भेजते थे। वे अपने जीवन में बहुत बदल गये थे । मुझे उनके और वकील सा० नेमिचन्दजी के साथ रहनेवाले पुराने सम्बन्धोंकी इस समय भी याद बनी हुई है। तेरापन्थ शुद्धाम्नायको माननेवाला यह व्यक्ति इतना कैसे बदल गया है ? इसको मुझे रह-रहकर खबर आती है । आज भी मान्य वकील सा० जीवित हैं। पर उनसे सम्बन्ध छूट गया है। वे बहुत गम्भीर

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