Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 12
________________ सिद्धान्ताचार्य पं० कैलाशचन्द्रजी सामन्तशाही रसूक में पले और बढ़े लाला मुसद्दीलालजी ( नहटोर जि० बिजनोर ) को कार्तिक शु० १२ सं० १९६० ( १९०३ ) में द्वितीय पुत्रका जन्म हुआ था। जिसका नाम कैलाशचन्द्र रखा गया था। माता सौ०......"देवी का लालन-पालन उस समयको शुद्ध तेरापंथी मान्यताके वातावरण में हुआ था । फलतः हस्तिनापुर, शिखरजी यात्रा प्रसंग से शिशु कैलाश को गुरु गोपालदास तथा ह०-गुरुकुल और स्याद्वाद महा विद्यालय देखने पर उन्होंने भी अपने छोटे बेटे को वहीं पढ़ानेका विचार कर लिया था । क्योंकि उस समय के प्रमुख श्रीमान् देवकुमार रईश लाला जम्बूप्रसाद देवीप्रसाद आदि भी अपने पुत्रों ( प्रद्युम्रकुमारजी, बाबू निर्मलकुमार ) अनुजों ( उमरावसिंहादि ) आदि को धार्मिक शिक्षा के लिए भेजते थे। प्रारम्भिक शिक्षा के बाद बालक कैलाशचन्द्र जी भी रा० ब० द्वारकाप्रसाद जी को प्रेरणा से १९५४ में वाराणसी आये। तथा अपनी लगन, श्रम और क्षयोपशमके कारण गुरुओं के स्नेहभाजन तथा साथियों के आदरणीय हुए। राष्ट्रपिता महात्मागांधी के विद्यालय में निवास तथा राष्ट्रीय स्वातंत्र्य संग्राम की छावनी 'काशी विद्यापीठ' की पड़ोस के कारण विषय कंठस्थ होने पर भी १९२१ में अंग्रेज शासकीय शिक्षा (परीक्षा) का बहिष्कार करके मुरेना चले गये । क्योंकि उस समय स्याद्वाद महाविद्यालय में मुरेनादि के उच्च कक्षा के छात्र, व्याकरण, न्याय तथा साहित्य की उन्नत शिक्षा के लिए आते थे । और यहां के छात्र गुरु गोपालदासजो से सिद्धान्त शास्त्र पढ़ने वहां जाते थे। इस प्रकार इन्हें आधुनिक पाण्डित्य के आदि गुरुवरों ( गणेशवर्णी और गो० दा० ) का शिष्यत्व प्राप्त हुआ था। अध्यापकत्व शिक्षा समाप्त होते ही १९२३ में इनकी नियुक्ति अपने गुरुकुल ( स्या० म० वि० ) के धर्माध्यापक पद पर हो गयी थी किन्तु अस्वास्थ्यके कारण ये अधिक समय तक सेवा न कर सके। १९२७ में धर्माध्यापक का पद रिक्त होनेपर आप को पुनः बुलाया गया। तो अल्पवेतन होने पर भी अपने गुरुकुल-सेवा को धन्य माना । और कुछ वर्ष के बाद आजीवन यहीं रहने का व्रत कर लिया। क्योंकि यहां के पठन-पाठन-प्रवचनने उनकी सहज क्षमताओं ( सूक्ष्म विषय ज्ञान, मोहक वक्तता और सरल भाषा) को जग जाहिर कर दिया था। यह वही दशक था जिसमें इनके अग्रज सहाध्यायी पं० राजेन्द्र कुमार जी आर्यसमाज के निग्रहार्थ मोर्चा सम्हाल कर शास्त्रार्थ संघ की स्थापना कर चुके थी। और शोधक-लेखक-सभाचतुरों के सहयोग की तलाश में थे।

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