Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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मणिकांचन योग-
अपनी उदात्त प्रकृति के अनुसार शार्दूल पंडित ( रा० कु० ) जो ने गुरुओं के आशिष के साथ सहाध्यायियों को शा० संघकी कार्यकारिणी में लिया और पुस्तिका ( ट्रैक ) लिखने-सम्पादन का दायित्व सिद्धान्ताचार्य पर छोड़ा। जिसे अपनी सममज्ञता और समयबद्धता के बलपर इन्होंने ऐसा सम्हाला की कुछ समय में हो ये मूर्धन्य लेखक -सम्पादक माने जाने लगे थे । तथा जेनदर्शन और जैनसन्देश के द्वारा इन्होंने प्रवाहपतित अन्य जैन पत्रों को भी साप्ताहिकादि के स्तर पर आने की मिशाल पेश की थी। आचार्य जुगलकिशोर मुख्तार तथा पं० सुखलाल जी के आदर्श से प्रेरित होकर प्राचीन ग्रन्थ सम्पादन के गंभीर कार्य को अपने युवक सहयोगो न्यायाध्यापक स्व० पं० महेन्द्रकुमार को साथ लेकर प्रारम्भ किया तो उसमें भी ऐसी सफलता प्राप्त की थी कि धवलादि के प्रकाशक भी इनसे परामर्श करके प्रेस कापी को अंतिम रूप देते थे ।
जैन पाण्डित्य की पराकाष्ठा
सिद्धान्तशास्त्री जी की उक्त परिपक्वता का कारण उनकी 'आत्तं पाल्यं प्रयत्नतः' प्रकृति थी । दुबारा प्राचार्य (स्या० म० वि० ) होने पर वे पाठकत्व में इतने सफल रहे कि इन्हें आधुनिक 'विद्यालय का प्राण' कहते थे । तथा वास्तव में इनका प्राचार्यत्व स्या० परमगुरुवर गणेशवर्णी म० वि० का स्वर्णयुग था । भा० दि० जैन संघ यदि आर्य समाजी शास्त्रार्थं युग का समापक तथा प्राच्य पंडिताऊ - शोधपरिहारक, आधुनिक प्राचरक विद्वानों का जनक तथा दि० समाज का आदर्श संघटन दायक; शार्दूल पंडित ( रा० कु० ) के कारण था तो सिद्धान्ताचार्यजी की भी लेखिनो, वक्तृता, एवं शोध के बलपर पत्रकारिता का आदर्श, शोधकी सर्वांगता एवं जिनवाणी के हार्द की सरल सुबोध एवं सुवाच्य व्याख्या एवं लेखन का मार्गदर्शक हो सका था । सिद्धान्त शास्त्री जी की इस लोकप्रियता का कारण उनको तटस्थ एवं जागरूक दर्शकता थी । वे कहा करते थे कि मैं धार्मिक, सामाजिक प्रवृत्तियों में 'धर्म' तथा 'अधर्म द्रव्यके समान हूँ । मुझे सहयोगी बनने में आनन्द है (जैसा कि उन्होंने संघ, विद्यालय, न्यायकुमुद चन्द्र - जयधवल प्रकाशनादि में अपने को पीछे अर्थात् भूमिका लेखकादि करके किया था ) और कोई शुभ प्रवृत्ति रुक जाने पर मैं उसे प्रतिष्ठा का केन्द्र भी नहीं बनाता हूँ। वे ख्याति से परे स्पष्ट ज्ञाननुज, स्वललसंतुष्ट, निर्भीक एवं विश्वसनीय सहयोगी थे । उनकी जैनधर्म, आदि दशकों ससार मूल कृतियों, सम्पादनों आदि में 'जैन साहित्य के इतिहास को पूर्वपीठिका एकाकी ही उनको अमर करने में समर्थ है ।
ताराचन्द्र प्रेमी प्रधानमंत्री भा० दि० जैन संघ