Book Title: Kasaypahudam Part 16
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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सिद्धान्तशास्त्री पं. फूलचन्द्रजी उदय-आधुनिक जैन-जागरण के धीमान अग्रदूत गुरुवर गजेशवर्णी महाराज के प्रसाद से पूरा भारत दि० जैन पाठशालाओं की दीपमालिका से जगमगा उठा था। यह इनका ही प्रभाव था जिससे प्रेरित हो कर बमराना के सेठ बन्धओं में कनिष्ट स्व० सेठ लक्ष्मीचन्द्र जी ने अपनी जमीदारी-जाययाद के चौदह आना की निधि (ट्रष्ट) करके 'महावीर दि० जैन पाठशाला' साढूमल को स्थापित करके स्थायो भी कर दिया था। तथा स्व० पं० घनश्याम दास को प्राचार्य पद पर बुला कर इस पाठशाला को मेधावी छात्रों के परम आकर्षण का केन्द्र बना दिया था। इस पाठशाला के आद्य छात्रों में करणानुयोग के मूर्धन्य विद्वान् सिद्धान्तशास्त्री फूलचन्द्र जी भी थे । और अपनी प्रखर बुद्धि तथा तल्लीनता के कारण गुरुओं को विशेष प्रिय हो गये थे । आपका जन्म झांसी जनपद के सिलावन ग्राम के दृढ़ जैन संस्कारी साव दरयावलाल के तृतीय पुत्र रूप में हआ था। फलतः परिवार के धर्मपालन की प्रेरक एवं साधक माता जानकी बाई से शिशु फूलचन्द्र को धर्म प्रेम भरपूर प्राप्त हुआ था।
शिक्षा-कार्य-गांव के मदरसा की प्रारम्भिक शिक्षा पूर्ण करने के पहिले ही इन्हें साढ़मल पाठशाला भेज दिया गया था। और इनके सातिशय क्षयोमशम के कारण ‘स्याद्वाद महा विद्यालय' तथा गरु गोपालदासजी के 'सिद्धान्त विद्यालय' में गुरुओं एवं उनके प्रथम शिष्यों (स्व. पं० देवकीनन्दनजी, वंशीधरजी, आदि ) के मुख से धर्मशास्त्र पढ़ने का भी सुअवसर प्राप्त हुआ था। अपने प्रखर पांडित्य के कारण इन्हें जबलपर शिक्षा मन्दिर में आमंत्रित किया गया था। तथा पं० घनश्यामदासजी के खरई पाठशाला चले जाने पर आपने अपने प्रथम गुरुकूल (महावीर पाठशाला, साढूमल) का आचार्यत्व स्वीकार करके उसके प्रति कृतज्ञता का प्रदर्शन किया था। इसी प्रकार स्याद्वाद महा विद्यालय-वाराणसी के आदेश की शिरोधार्य करके उसके प्राचार्यत्व को सम्हाला था । और काशी विश्वविद्या० की भारतीय धर्म-शिक्षण योजनान्तर्गत जैनधर्म प्रशिक्षण का कार्य करके कला-विज्ञान-इंजीनियरिंग आदि कक्षाओं के स्नातकों को धार्मिक शिक्षा दी की। वाराणसी से आप बीना पाठशाला में आये । और अपनी करणानुयोग प्रखरता के कारण दक्षिण भारत से बुलाये गये वहां नातेपूत-अमरावती में भी अपने ज्ञान की गंगा बहाते रहे । तथा 'धवल' सिद्धान्तग्रन्थों का संपादन आरम्भ होने पर डा० एवं पं० हरीलाल-द्वय के दांये हाथ बन गये। और अपनी सूक्ष्म पकड़ के कारण समुचित पदपूर्ति को लेकर उठे मतभेद से हट कर वाणिज्य की ओर मुड़े। किन्तु इनकी सुझ-बूझ के पारखी भा० दि० जनसंघ के संस्थापक तथा इनके सहाध्यायी को यह सहन नहीं हुआ । फलतः इनकी क्षमतानुसार जयधवला-सम्पादन इनको ही अग्रसर करके किया