Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh

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Page 12
________________ ( ११ ) वह तिर्यञ्चों और मनुष्योंमें होती है, क्योंकि उनमें मानमें उपयुक्त हुए जीव सबसे कम होते हैं । जिस अल्पबहुत्व परिपाटी में क्रोधकपायमें उपयुक्त हुए जीवोंसे लेकर अल्पबहुत्वकी परीक्षा की जाती है वह प्रथमादिका परिपाटी कहलाती है । वह देवगति में होती है, क्योंकि वहाँ क्रोधकषायमें उपयुक्त हुए जीव सबसे थोड़े होते हैं। तथा जिस अल्पबहुत्व परिपाटीमें लोभकषायसंज्ञक अन्तिम कषायमें उपयुक्त हुए जीवोंसे लेकर अल्पबहुत्वकी परीक्षा की जाती है वह चरमादिका परिवाटी कहलाती है । वह नारकियोंमें होती है, क्योंकि वहाँ लोभमें उपयुक्त जीव सबसे थोड़े होते हैं । इस प्रकार इस गाथा सूत्रकी व्याख्यामें उक्त तीन परिपाटियोंका निर्देश करनेके बाद अल्पबहुत्वविधिका निर्देश करते हुए मानकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके प्रवेशकालसे क्रोधकपायमें उपयुक्त हुए जीवोंका प्रवेशकाल विशेष अधिक है यह बतलाकर प्रवाह्यमान और अप्रवाह्यमान उपदेशके अनुसार विशेषका प्रमाण कितना है यह निर्देश करके इस विषयका विशेष स्पष्टीकरण जयधवला टीकामें करके इस अर्थाधिकारको समाप्त किया गया है । ८ चतुःस्थान अर्थाधिकार कषायप्राभृतका आठवाँ अर्थाधिकार चतुःस्थान है । इसमें सब गाथासूत्र १६ हैं । उनमेंसे प्रथम गाथासूत्रमें क्रोधादि चारों कषायोंमेंसे प्रत्येकको चार-चार प्रकारका बतलाया गया है । यहाँ प्रत्येक कपायके इन चार भेदोंमें अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानावरण आदिरूप भेद विवक्षित नहीं हैं, क्योंकि उनका निर्देश प्रकृतिविभक्ति आदि अर्थाधिकारोंमें पहले ही कर आये हैं । क्रोध दो प्रकारका है - सामान्य क्रोध और विशेष क्रोध । अपने सब विशेषोंमें व्याप्त होकर रहनेबाला क्रोध सामान्य क्रोध कहलाता है और अनन्तानुबन्धी क्रोध आदिरूपसे विवक्षित क्रोध विशेष क्रोध कहलाता है । इसी प्रकार मान, माया और लोभको भी दो-दो प्रकारका जानना चाहिए। इनमेंसे यहाँ सामान्य क्रोध, सामान्य मान, सामान्य माया और सामान्य लोभकी अपेक्षा प्रत्येकको अन्य प्रकारसे चार-चार प्रकारका कहा है । यहाँ अनन्तानुबन्धी आदि क्रोध, मान, माया और लोभ विवक्षित नहीं हैं । इसका कारण यह है कि अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान और प्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया और लोभमें द्विस्थानीय, त्रिस्थानीय और चतुःस्थानीय अनुभागको छोड़कर एकस्थानीय अनुभाग नहीं पाया जाता है, अतः जिसमें समस्त विशेष लक्षण संगृहीत हैं ऐसे क्रोध, मान, माया और लोभ सामान्यका आलम्बन लेकर यहाँ प्रत्येकको चार-चार प्रकारका बतलाया गया है । दूसरी सूत्रगाथामें क्रोध और मानकषायके उदाहरणों द्वारा चार-चार भेदोंका निर्देश किया गया है । यथा -- क्रोध चार प्रकारका है— पत्थरकी रेखाके समान, पृथिवीकी रेखाके समान, बालूकी रेखाके समान और जलकी रेखाके समान । मान भी चार प्रकारका है - शिलाके स्तम्भके समान, हड्डीके समान, लकड़ीके समान और लताके समान । इनका अर्थ स्पष्ट है । विशेष खुलासा मूलमें किया ही है । यहाँ इतना विशेष जानना चाहिए कि क्रोधकषायके उक्त चार भेदोंके स्वरूपपर प्रकाश डालने के लिए जो उदाहरण दिये गए है वे संस्काररूपसे उनके अवस्थित रहने के कालको स्पष्ट करनेके लिये ही दिये गये हैं । तथा मानकषायके उक्त चार भेदोंके स्वरूप पर प्रकाश डालनेके लिये जो उदाहरण दिये गये हैं वे मानकषाय सम्बन्धी परिणामोंके तारतम्यको दिखलानेके लिये दिये गये हैं । इसीप्रकार आगे माया और लोभ कषायके भेदोंके स्वरूपका बोध करानेके लिये भी जो उदाहरण दिये गये हैं वे भी माया और लोभ कषायके परिणामोंके तारतम्यको ध्यान में रख कर ही दिये गये हैं । तीसरी सूत्रगाथा में उदाहरणों द्वारा मायाके चार भेदोंका निर्देश किया गया है। यथा - माया चार प्रकारकी है— बाँसकी अत्यन्त टेढ़ी गाठोंवाली जड़के समान, मेढ़ेके सींगोंके समान, गायके मूत्रके समान और दतौनके समान ।

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