Book Title: Kasaypahudam Part 12
Author(s): Gundharacharya, Fulchandra Jain Shastri, Kailashchandra Shastri
Publisher: Bharatvarshiya Digambar Jain Sangh
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'जे जे जम्हि कसाए' यह छठवीं सूत्रगाथा है। वर्तमान समयमें जो अनन्त जीव क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त हैं, अतीत और अनागतकालमें भी वे सब उतने ही जीव उसी प्रकार क्रोधादि कपायोंमें क्या उपयुक्त रहे हैं या उपयुक्त रहेंगे इन सब तथ्योंकी सम्भावना और असम्भावनाका विचार करनेके लिए यह सूत्रगाथा निबद्ध हई है। अर्थात इस सूत्रगाथा द्वारा इस बातकी सूचना की गई है कि जो वर्तमान समयमें क्रोधादि कषायोंमें उपयुक्त जीव हैं उनका अतीत और अनागत कालमें मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल आदिके भेदोंसे सम्बन्ध रखनेवाला प्रमाण कितना है ? आगे चूर्णिसूत्रोंमें इसीका स्पष्टीकरण करते हुए बतलाया है कि जो जीव वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयुक्त हैं उनका अतीत समयमें मानकाल, नोमानकाल और मिश्रकाल इसप्रकार तीन प्रकारका काल पाया जाता है और इसी प्रकार क्रोधकी अपेक्षा भी तीन प्रकारका काल पाया जाता है--क्रोधकाल, नोक्रोधकाल और मिश्रकाल । इतना ही नहीं, किन्तु माया और लोभको अपेक्षा भी इसी प्रकार तीन-तीन प्रकारका काल जान लेना चाहिए। यह कुल काल १२ प्रकारका होता है। यह अतीतकी अपेक्षा विचार है तथा इसी प्रकार भविष्यत् कालकी अपेक्षा भी उक्त काल बारह प्रकारका घटित कर लेना चाहिए।
___जो वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयुक्त हैं वे यदि अतीत कालमें भी मानमें उपयुक्त रहे हैं तो वह उनका मानकाल कहलाता है । जो वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयुक्त हैं वे यदि अतीत कालमें मानकषायमें उपयुक्त न होकर अन्य कषायोंमें उपयुक्त रहे हैं तो वह उनका नोमान काल कहा जावेगा और जो जीव वर्तमान समयमें मानकषायमें उपयक्त रहे हैं, अतीतकालमें उनमेंसे कुछ मानकषायमें और कुछ अन्य कषायोंमें उपयुक्त रहे है तो वह उनका मिश्रकाल कहा जायगा। यह अतीतकालीन मानकषायकी अपेक्षा विचार है। अतीतकालीन क्रोधादिकषायोंकी अपेक्षा भी इसी प्रकार विचार कर लेना चाहिए । वर्तमानमें जो मानकषायमें उपयुक्त है वे यदि अतीतकालमें क्रोधकषायम उपयुक्त रहे हैं तो वह उनका क्रोधकाल कहा जायगा। यदि अतीतकालमें मान और क्रोधको छोड़कर अन्य दो कषायोंमें उपयुक्त रहे हैं तो वह उनका नोक्रोधकाल कहा जायगा और यदि अतीतकालमें वे मानके सिवाय कुछ क्रोधकषायम उपयुक्त रहे हैं और कुछ माया और लोभ कषायमें उपयुक्त रहे हैं तो वह उनका मिश्रकाल कहा जायगा। इसप्रकार वर्तमानमें मानमें उपयुक्त हुए जीवोंका अतीतकालमें क्रोधकषायकी अपेक्षा भी तीन प्रकारका काल होता है। इसी प्रकार वर्तमानमें जो मानकषायमें उपयुक्त हैं उनका अतीतकालमें माया और लोभकषायकी अपेक्षा भी मायाकाल, नोमायाकाल और मिश्रकाल तथा लोभकाल, नोलोभकाल और मिश्रकालके भेदसे तीन-तीन प्रकारका काल जानना चाहिए। यह वर्तमानमें जो मानकषायमें उपयुक्त हैं उनका अतीतकालमें चारों कषायोंकी अपेक्षा १२ प्रकारका काल है ।
__इसी प्रकार वर्तमान समयमें क्रोध, माया और लोभकषायमें उपयुक्त हुए जीवोंके अतीत कालमें सब कालोंका योग क्रमसे ११, १० और ९ प्रकारका होता है। विशेष खुलासा मूलसे जान लेना चाहिए। इसीप्रकार भविष्य कालकी अपेक्षा भी विचार कर लेना चाहिए। इतना सब विचार करनेके बाद इन कालोंका अल्पबहुत्व बतलाकर इस गाथाका व्याख्यान समाप्त किया गया है।
सातवीं गाथा 'उवजोगवग्गणाहि य' है । इसके पूर्वार्धद्वारा कषायउदयस्थान और कषाय-उपयोगाद्धा स्थान इनमेंसे कितने स्थान जानेके बाद कौन स्थान जीवोंसे रहित होते हैं और किस गतिमें किन जीवोंसे कौन स्थान सहित होते हैं इसका विशेष विचार किया गया है। यहाँ इस बातका विचार त्रसजीवों की अपेक्षा किया गया है, क्योंकि स्थावर जीव अनन्त हैं, इसलिये स्थावरोंके योग्य असंख्यात लोकप्रमाण कषाय-उदयस्थानोंमें उनका सदा निरन्तररूपसे सद्भाव बन जाता है । त्रसोंकी अपेक्षा भी विचार करते हुए इन दोनों प्रकारके स्थानोंमें जीवोंकी अपेक्षा यवमध्यकी रचना कैसे बनती है इत्यादि विशेष विचार मूलसे जान लेना चाहिए।
उक्त गाथाके उत्तरार्धद्वारा तीन श्रेणियोंका निर्देश किया गया है। वे तीन श्रेणियाँ है-द्वितीयादिका, प्रथमादिका और चरमादिका । यहाँ श्रेणिका अर्थ पंक्ति अर्थात् अल्पबहुत्वपरिपाटी है। जिस परिपाटीमें मान कषायमें उपयुक्त हुए जीवोंसे लेकर अल्पबहुत्वकी परीक्षा की जाती है वह द्वितीयादिका परिपाटी कहलाती है।