Book Title: Karan Kutuhalam
Author(s): Bhaskaracharya
Publisher: Kshemraj Krishnadas

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Page 16
________________ ( १२ ) करणकुतूहलम् । स्वक्षेपेण २|४ | ० | ५१ युतो जातो ३६।११।१२।३९।२७ मध्यम इन्द्रमन्त्री गुरुः ॥ अथ शुकशीघ्रोच्चानयनमुपजात्युत्तरार्द्धे णेन्द्रवज्रापूर्वाधेनाह नृपाहतोह्नां निचयो द्विधासौ भूवाणवेदाद्विभि७४ ५१ रम्रचन्द्रैः ॥ ११ ॥ भक्तो लवाद्यं फलयोर्यदैक्यं तज्जायते दैत्यगुरोश्च लोच्चम् | अह्नां दिनानां निचयो गणो नृपैः षोडशभिः १६ आहतो गुणितोऽयं पुनर्भूबाणवेदाद्रिभिरेकपञ्चाशदुत्तरचतुःसप्ततिशतैः ७४५१ भक्तस्तथा यमाश्चचन्द्रैः १० दशभिश्वेति द्विधा प्रकारद्वयेन भक्त एवं लब्धस्य फलद्वयस्य यदैक्यं योगस्तद्दैत्यगुरोःशुक्रस्यांशादिकं चलोच्चं जायते । यथाहर्गणः १५९३१६ नृपैः १६ हतः २५४९०५६ एकत्र भूबाणवेदादिभिः ७४ ५१ भक्तः ३४२।६।३३ अपरत्र दशभक्तोंशादिः २५४९ ०५।३६।० ०५। ३६ । ० उभयोरैक्यम् २५५२४७।४२।३३ पूर्ववद्भगणादिः ७०९/०।७।४२।३३ स्वक्षेपेण ८।१८/५/५५ तो जातं शुक्रशीघ्रोच्चम् ७०९ | ८ | २५ |४८ । २८ ॥ ११॥ अपेन्द्रवज्जोत्तरार्द्धेन शनिमाहभक्तोऽभ्रमै ३० स्तुरगांगरामनन्दै ९३६७ द्विधांशादिफलैक्यमार्किः ॥ १२ ॥ यथाहर्गणः १५९३१६ द्विधैकत्राभरामैखििशद्भिः ३० भक्तो लब्धम् ५३१०|३२|० अपरत्र तुरगाङ्गरामनन्दैः Shree Sudharmaswami Gyanbhandar-Umara, Surat www.umaragyanbhandar.com

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