Book Title: Jain Sanskrit Mahakavya
Author(s): Satyavrat
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 18
________________ आलोच्य महाकाव्यों की प्रवृत्तियाँ तथा विशेषताएँ प्रथमानुयोग के शिखर से काव्य का जो महानद प्रवाहित हुआ, उसकी मुख्य धारा का नाम जैन ललित साहित्य है। समवायांग के रेखात्मक चरितवर्णन से संकेत पाकर परवर्ती जैन लेखकों तथा कवियों ने अपने सृजन को गौरवान्वित करने के लिये शलाका पुरुषों के जीवनवृत्त को उत्साहपूर्वक उसका विषय बनाया है। धार्मिक आदर्श तथा आचार को जन-जन तक पहुंचाने के लिये काव्य तथा कथा का सरस माध्यम सर्वत्र उपयोगी है। वस्तुतः जैन वाङ्मय में शास्त्र तथा साहित्य की भेदक रेखा अधिक स्थूल नहीं है। पांचवीं शताब्दी ईस्वी में, वलभीपाचना के फलस्वरूप जैन आगम के व्यवस्थित रूप में लिपिबद्ध होने से पूर्व आगमेतर साहित्य का निर्माण आरम्भ हो चुका था जिससे जैन साहित्य की ये दोनों शाखाएं एक-दूसरे के अधिकार-क्षेत्र का अतिक्रमण करती दिखाई देती हैं। जैन महाकाव्य में प्राचीन महाकाव्य-परम्परा से तात्त्विक भिन्नता नहीं पायी जाती। वह उस गौरवशाली परम्परा का उत्तराधिकारी है, जो अश्वघोष से आरम्भ होकर श्रीहर्ष के समय तक, अपने समस्त गुण-दोषों के साथ, प्रतिष्ठित हो चुकी थी। और इसमें सन्देह नहीं कि जैन कवियों ने, विवेकी दायादों की तरह, उस पूंजी का दक्षता से उपयोग किया है। यद्यपि जैन काव्यशास्त्रियों ने महाकाव्यसम्बन्धी परिभाषाओं की तत्त्वगत विशेषताओं को बहुलांश में ग्रहण किया है, तथापि जिनसेन के सूत्र-महापुराणसम्बन्धि महानायकगोचरम्'--ने जैन कवियों को इस गहराई से प्रभावित किया कि जैन महाकाव्य पुराणोन्मुखी बन गया। वस्तुतः जैन साहित्य में पुराण महाकाव्य के अग्रगामी तथा प्रेरक हैं। यह सत्य है कि ब्राह्मण पुराणों के विपरीत जैन पुराणों का काव्यगत मूल्य बहुत ऊंचा है और उनके कई प्रकरण आमूलचूल महाकाव्य का आभास देते हैं, पर इस तथ्य का भी अपलाप नहीं किया जा सकता कि इस पुराण-निर्भरता के कारण अधिकतर जैन महाकाव्यों में, पुराणों की भांति, प्रचारवादी भावना कुछ अधिक मुखरित है और उनका प्रत्यक्ष अथवा अप्रत्यक्ष उद्देश्य रत्नत्रय पर आधारित जैन सिद्धान्त तथा अनुशासन को ग्राह्य बनाना है।' कतिपय अपवादों को छोड़कर जैन कवियों ने काव्य १. काव्यानुशासन, ८.६ तथा वृत्ति, पृ० ४४६-४६२ २. मादिपुराण, १.६६ ३. पद्मपुराण (रविषण), १.१

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