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नहीं है । और वे लोग अपने धर्म को क्या कहते थे, यह किसी लिखित प्रमाण से जाना सम्भव नहीं है । किन्तु अन्य जो सामग्री मिली है उस पर से विद्वानों का अनुमान है कि उस प्राचीन भारतीय संस्कृति में योग को अवश्य स्थान था । यह तो हम अच्छी तरह से जानते हैं कि वैदिक आर्यों में वेद और ब्राह्मणकाल में योग की कोई चर्चा नहीं है । उनमें तो यज्ञ को ही महत्त्व का स्थान मिला हुआ है । दूसरी ओर जैन-बौद्ध में यज्ञ का विरोध था और योग का महत्त्व | ऐसी परिस्थिति में यदि जैनधर्म को तथाकथित सिन्धुसंस्कृति से भी सम्बद्ध किया जाय तो उचित होगा ।
और उनके पुरों
अब प्रश्न यह है कि वेदकाल में उनका नाम क्या रहा होगा ? आर्यों ने जिनके साथ युद्ध किया उन्हें दास, दस्यु जैसे नाम दिये काम नहीं चलता । हमें तो वह शब्द चाहिए जिससे उस जिसमें योगप्रक्रिया का महत्त्व हो । ये दास-दस्यु पुर में रहते थे का नाश करके आर्यों के मुखिया इन्द्र ने पुरन्दर की पदवी को प्राप्त किया । उसी इन्द्र ने यतियों और मुनियों की भी हत्या की है - ऐसा उल्लेख मिलता है ( अथर्व ० २. ५. ३) । अधिक सम्भव यही है कि ये मुनि और यति शब्द उन मूल भारत के निवासियों की संस्कृति के सूचक हैं और इन्हीं शब्दों की विशेष प्रतिष्ठा जैनसंस्कृति में प्रारम्भ से देखी भी जाती है । अतएव यदि जैनधर्म का पुराना नाम यतिधर्म या मुनिधर्म माना जाय तो इसमें आपत्ति की बात न होगी । यति और मुनिधर्म दीर्घकाल के प्रवाह में बहता हुआ कई शाखा प्रशाखाओं में विभक्त हो गया था । यह हाल वैदिकों का भी था । प्राचीन जैन और बौद्ध शास्त्रों में धर्मों विविध प्रवाहों को सूत्रबद्ध करके श्रमण और ब्राह्मण इन दो विभागों में बाँटा गया है । इनमें ब्राह्मण तो वे हैं जो वैदिक संस्कृति के अनुयायी हैं और शेष सभी का समावेश श्रमणों में होता था । अतएव इस दृष्टि से हम कह सकते हैं कि भगवान् महावीर और बुद्ध के समय में जैनधर्म का समावेश श्रमणवर्ग में था ।
। किन्तु उससे हमारा संस्कृति का बोध हो
ऋग्वेद (१०.१३६.२) में 'वातरशना मुनि' का उल्लेख हुआ है, जिसका अर्थ है - नग्न मुनि । और आरण्यक में जाकर तो 'श्रमण' और 'वातरशना' का एकीकरण भी उल्लिखित है । उपनिषद् में तापस और श्रमणों को एक बताया गया है ( बृहदा० ४.३.२२ ) । इन सबका एक साथ विचार करने पर श्रमणों की तपस्या और योग की प्रवृत्ति ज्ञात होती है । ऋग्वेद के वातरशना मुनि और यति भी ये ही हो सकते हैं । इस दृष्टि से भी जैनधर्म का सम्बन्ध श्रमण परम्परा से सिद्ध होता है और इस श्रमण परम्परा का विरोध वैदिक या ब्राह्मण-परम्परा से चला आ रहा है, इसकी सिद्धि उक्त वैदिक तथ्य से होती है कि इन्द्र ने यतियों और
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