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करें। वेद के ह्रास का यह कारण पूर्वभारत की प्रजा के संस्कारों में निहित है और जैनधर्म के प्रवर्तक महापुरुष जितने भी हुए हैं वे मुख्यरूप से पूर्वभारत की ही देन हैं । जब हम यह देखते हैं तो सहज ही अनुमान होता है कि पूर्वभारत का यह धर्म ही जैनधर्म के उदय का कारण हो सकता है, जिसने वैदिक धर्म को भी नया रूप दिया और हिंसक तथा भौतिक धर्म को अहिंसा और आध्यात्मिकता का नया पाठ पढ़ाया।
जब तक पश्चिमी विद्वानों ने केवल वेद और वैदिक साहित्य का अध्ययन किया था और जब तक सिन्धुसंस्कृति को प्रकाश में लानेवाले खुदाई कार्य नहीं हुए थे तब तक भारत में जो कुछ संस्कृति है उसका मूल वेद में ही होना चाहिए-ऐसा प्रतिपादन वे करते रहे । किन्तु जब से मोहेन-जोदारो और हरप्पा की खुदाई हुई है तब से पश्चिम के विद्वानों ने अपना मत बदल दिया है और वेद के अलावा वेद से भी बढ़-चढ़कर वेदपूर्वकाल में भारतीय संस्कृति थी-इस नतीजे पर पहुँचे है । और अब तो उस तथाकथित सिन्धुसंस्कृति के अवशेष प्रायः समग्र भारतवर्ष में दिखाई देते हैं-ऐसी परिस्थिति में भारतीय धर्मों के इतिहास को उस नये प्रकाश में देखने का प्रारम्भ पश्चिमीय और भारतीय विद्वानों ने किया है और कई विद्वान् इस नतीजे पर पहुँचे हैं कि जैनधर्म वैदिकधर्म से स्वतन्त्र है। वह उसकी शाखा नहीं है और न वह केवल उसके विरोध में ही खड़ा हुआ है। प्राचीन य त-मुनि-श्रमण : ___ मोहेन-जोदारो में और हरप्पा में जो खुदाई हुई उसके अवशेषों का अध्ययन करके विद्वानों ने उसकी संस्कृति को सिन्धुसंस्कृति नाम दिया था और खुदाई में सबसे निम्नस्तर में मिलने वाले अवशेषों को वैदिक संस्कृति से भी प्राचीन संस्कृति के अवशेष है-ऐसा प्रतिपादन किया था। सिन्धुसंस्कृति के समान ही संस्कृति के अवशेष अब तो भारत के कई भागों में मिले हैं-उसे देखते हुए उस प्राचीन संस्कृति का नाम सिन्धुसंस्कृति अव्याप्त हो जाता है । वैदिक संस्कृति यदि भारत के बाहर से आने वाले आर्यों की संस्कृति है तो सिन्धुसंस्कृति का यथार्थ नाम भारतीय संस्कृति ही हो सकता है ।
__ अनेक स्थलों में होनेवाली खुदाई में जो नाना प्रकार की मोहरें मिली हैं उन पर कोई न कोई लिपि में लिखा हुआ भी मिला है । वह लिपि सम्भव है कि चित्रलिपि हो । किन्तु दुर्भाग्य है कि उस लिपि का यथार्थ वाचन अभी तक हो नहीं पाया है। ऐसी स्थिति में उसकी भाषा के विषय में कुछ भी कहना सम्भव
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