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तर्ज पूर्ववत् । गजल रण्डीबाजी निषेध पर । __ अय जवानों मानो मेरी, रण्डीबाजी छोड दो। कपर का भंडार है, तुम रण्डीवाजी छोड दो ॥ टेर ॥ पोशाक उम्दा जिस्म पर सज, पान से मुंह को रचा । टेढ़ी निगाह से देखती तुम्हें, रण्डीबाजी छोड दो ॥१॥ धन होने किस कदर, इस चिन्ता में मशगूल रहे । मतलब की पूरी यार है । तुम रण्डीवाजी छोड दो॥२॥ काम अन्ध पुरुष को, मकड़ी के मुआफिक फांसले । गुलाम अपना बर बनावे, रण्डीबाजी छोड दो ॥३॥ विपय अन्ध होके सभी, बाह माल घर का सौंप दे। मतलब बिना आने न दे, तुम रण्डीबाजी छोड़ दो ॥ ४ ॥ इस की सोहबत में बड़ों का, बडप्पन रहता नहीं। पानी फिरावे आबरू पर, रण्डीबाजी छोड दो ॥५॥ सुजाक नहीं से सड़े, सुंह पर दमक रहती नहीं । कमजोर हो कई भरगए, नुम रण्डीबाजी छोड दो ॥६॥ भरोसा कोई नहीं गिने, धर्म कर्म का होता है नाश । चौथमत कहे अस रफीको, रण्डीवाजी छोड दो ॥ ७॥
तर्ज पूर्ववत् । गजल शिकार निषेध पर । साह दिल होजायगा, शिकार करना छोडदे । कातिल ,