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* इन्द्र का मेरुपर्वत पर प्रतिगमन *
जन्म के समय सौधर्म देवलोक के शक्र इन्द्र अवधिज्ञान द्वारा भगवान के जन्म को जानकर सत्वर वहीं रहते हुए दर्शन - वंदन और स्तुति करते हैं, तत् पश्चात तीर्थंकरों के जन्माभिषेक का उत्सव मेरुपर्वत पर जाकर स्वयं के द्वारा आयोजित करने की दृष्टि से देवलोक के अन्य देव - देवियों को अपने साथ उत्सव में पधारने का आमंत्रण देते हैं, आमंत्रण को भाव से स्वीकार कर असंख्य देव - देवियां भी तथा तिरसठ इन्द्र मेरु पर्वत पर पहुंचते है, जब कि शक्रेन्द्र जन्म की
रात्रि में ही सीधे पृथ्वी पर आकर वामाराणी के शयनागार में जाकर, माता सहित भगवान को नमस्कार करते हैं और अवस्वापिनी नामक दैविक शक्ति से उन्हें निद्राधीन करके आज्ञानुसार भक्ति का पूरा लाभ लेने के लिए शीघ्र अपने ही शरीर के वैक्रियलब्धि - शक्ति से पांच रूप बनाकर एक रूप से दोनों हाथ में भगवान को लेकर, अन्य रूपों से छत्र - चामर और वज्र धारण करके जम्बूद्वीप के केन्द्र में विराजमान नन्दनवन तथा जिनमन्दिरों से सुशोभित मेरु पर्वत पर ले जाते हैं।
* मेरु पर्वत पर जन्म कल्याणक का उत्सव (स्नात्राभिषेकोत्सव) * शक्रेन्द्र मेरु पर्वत पर भगवान को लाकर स्वयं पर्वत के शिखर पर स्थित एवं पांडुक शिला पर बैठकर भगवान को अपनी गोद में विराजमान करते हैं। उस समय परमात्मा की भक्तिपूर्वक आत्मकल्याण के इच्छुक शेष 63 इन्द्र तथा असंख्य देव - देवियां एकत्र होते हैं । इन्द्र अभिषेक के लिए पवित्र तीर्थस्थलों की मृत्तिका तथा नदी - समुद्रों के सुगंधित औषधियों से मिश्रित जल के सुवर्ण चांदी और रत्नों के हजारों कलश तैयार कराने के पश्चात् इन्द्र का आदेश मिलने पर इन्द्रादिक देव - देवियां अपूर्व उत्साह और आनंद के साथ कलशों को हाथ में लेकर, भगवान का स्नानाभिषेक करते हैं । अंत में शक्रेन्द्र स्वयं अभिषेक करता है। तदनन्तर भगवान के पवित्र देह को चन्दनादि सुगंधित द्रव्य से विलेपन कर आरती - दीपक उतारकर अष्टमंडलों का आलेखन करते हैं। अन्य देव तथा देवियां भगवान की स्तुति और गीत - नृत्यों के द्वारा आनंद व्यक्त करती हैं। फिर प्रातःकाल से पूर्व ही भगवान को वामादेवी के शयनागार में लाकर पास में सुला देते हैं और देवगण अपने स्थान पर चले जाते हैं। यह जन्म महोत्सव उसी रात्रि में ही मना लिया जाता है।
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