Book Title: Jain Dharm Darshan Part 02
Author(s): Nirmala Jain
Publisher: Adinath Jain Trust

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Page 14
________________ ... व्रत अंगीकार किया। एक वक्त वह हाथी कीचड में ऐसा फंस गया कि न तो आगे जा सकता था, न पीछे हट सकता था। उस समय वह कुर्कुट सर्प भी वहाँ आ पहूँचा, पूर्व भव के वैर से उस हाथी को डंसा, धर्मध्यान में परायण वह हाथी श्रावक व्रत पालता हुआ प्राणान्त हो गया। * तीसरा भव :- तीसरे भव में मरुभूति का जीव सहस्त्रार नामक आठवें देवलोक में उत्पन्न हुआ और कमठ का जीव सर्प दावानल में मरकर पाँचवी नरक में उत्पन्न हुआ ।। * चौथा भव :- चौथे भव में देवलोक से च्यवनकर मरुभूति का जीव इस जम्बुद्वीप के महाविदेह में सुकच्छ विजय के वैताढ्य पर्वत की दक्षिण श्रेणी में तिलकवती नगरी के अधिपति विद्युतगति नृप की पत्नी कनकवती की कुक्षि में पुत्रपने उत्पन्न हुआ, किरणवेग नाम रखा गया, अनुक्रम से युवा अवस्था में राज्य पालता हुआ और स्वरुप शालिनी ललनाओं के साथ वैषयिक क्रीडा करता हुआ एक वक्त महल के गोख में बैठा हुआ था, संध्या का रंग देखकर वैराग्यवान् हो गया मुनि महाराज के पास दीक्षा लेकर पुष्कर द्वीप में वैताढ्य पर्वत के पास हेमशैल पर्वत के ऊपर काउसग्ग ध्यान रहा, उस अर्से में कमठ का जीव नरक से निकल कर उसी पर्वत पर सर्प हुआ, उसने उन साधु महाराज को देखा, पूर्व वैर वश होकर उनको डंसा, महात्मा काल कर गये । * पाँचवा भव :- पाँचवे भव में मरुभूति का जीव अच्युत नाम बारहवें देवलोक में उत्पन्न हुआ, कमठ का जीव सर्प योनि से मरकर पाँचवी नरक में उत्पन्न हुआ। * छट्ठा भव :- छठे भव में मरुभूति का जीव देवलोक से च्यवनकर इस ही जम्बूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में गंधलावती विजय की शुभंकरा नगरी के अंदर वज्रवीर्य राजा की लक्ष्मीवती रानी के कुक्षि में पुत्र वज्रनाभ के रुप में उत्पन्न हुआ। क्रमश : पिता के दिये हुए राज्य को और विषय सुखों को भोगता हुआ आनंद से रहता था, एक समय उद्यान में क्षेमंकर तीर्थंकर पधारें, वज्रनाभ प्रभु के दर्शनार्थ गया, देशना श्रवण से सर्व अनित्य जानकर पुत्र को राज्य सौंप दिया और तीर्थंकर के पास दीक्षा ग्रहण करली, सर्व आचार - विचार, शास्त्र - सिद्धांत का अध्ययन कर चरण - लब्धि से विचरते हुए सुकच्छ विजय मध्यवर्ती ज्वलंत नामक पर्वत पर काउसग्ग ध्यान में रहे - कमठ का जीव नरक से निकलकर बहुत भव भ्रमण कर इसी पर्वत पर भील बना, शिकार के निमित्त जाते हुए उसने उन साधु को देखा, पूर्व वैरवश होकर एक ही बाण से उनके प्राण ले लिए | * सातवाँ भव :- सातवें भव में मरुभूति का जीव मध्य ग्रैवेयक देव बना, कमठ का जीव सातवीं नरक में गया । * आठवाँ भव :- आठवें भव में मरुभूति का जीव इसी जम्बूद्वीप के पूर्व महाविदेह में शुभंकर विजय के पुराणपुर नगर के अंदर कुशलबाहु भूपति की रानी सुदर्शना के गर्भ से उत्पन्न हुआ, माता ने चौदह स्वप्न देखें, उसका नाम सुवर्णबाहु रखा गया, यौवन काल में पिताजी ने पुत्र को राज्य दे दिया, उसने छः खण्ड साधकर चक्रवर्ती पद प्राप्त किया। राज्य सुखों का अनुभव कर वृद्धावस्था में चारित्र ग्रहण किया, बीस स्थानक की आराधना कर तीर्थंकर नाम कर्म उपार्जन किया। एक विसतिस्थावकपट PAL पूर्व जन्म में जाकर मान मर्यालयकोर का विषय प्राप्ति में अनिवार्य काम होनेवाले मानसि । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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