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एक दिन वसंत ऋतु में रानियों ने मिलकर अपने प्यारे देवर नेमिकुमार को फाग खेलने के लिए बगीचे में बुला वहाँ हंसी - मजाक के साथ सरोवर में जल क्रीडा करते हुए भाभियों ने देवरानी लाने के लिए नेमिकुमार को मजबूर कर दिया। माता - पिता, भाई श्री कृष्ण आदि सबका अत्यधिक आग्रह देखकर नेमिकुमार विवाह के लिए मौन रहे। तब श्री कृष्ण ने स्वयं उग्रसेन के पास जाकर नेमिकुमार के लिए राजीमती की मांग कर ली, इधर कोष्टिक निमितक को बुलाकर लग्न शोधाये, वर्षाकाल में लग्न नहीं होते हैं, मगर उतावल के कारण श्री कृष्ण के वचन से श्रावण सुदि 6 का दिन निर्णय किया गया। विवाह से पूर्व किये जाने वाले सारे रीति रिवाज संपन्न हुए। विवाह का दिन आया। अरिष्ट नेमि की बारात सजायी गई। कुमार के हाथी के आगे अनेक यादव कुमार घोडों पर सवार हो चल रहे थे। दोनों पार्श्व में मदोन्मत्त हाथियों पर बैठे
हजारों राजा चल रहे थे। अरिष्टनेमि के हाथी के पीछे - बलराम
और कृष्ण हाथियों पर आरुढ थे। सुंदर मंगल गीत गाये जा रहे थे। इस प्रकार बडे ही ठाठ-बाट के साथ कुमार की बारात महाराज उग्रसेन के प्रासाद की ओर बढ रही थी।
राजीमती भी अलंकृत हुई। सखियों से घिरी वह अपने सौभाग्य की सराहना कर रही थी। सहसा उसकी दाहिनी आँख और भुजा फडकने लगी।
अनिष्ट की आशंका से उसका हृदय धडकने लगा। सखियों ने उसे ढाढस बँधाया। इस मंगलमय बेला में तुम अमंगल की आशंका क्यों कर रही हो ?
बारात प्रासाद के निकट पहुँचने वाली थी, तभी कुमार की दृष्टि एक बाडे में बँधे, भय से व्याकुल वन्य पशुओं पर गई। उनका करुणा क्रन्दन उसके कानों में सुनाई दिया। कुमार ने सारथी से पूछा - यह किसका करुण क्रन्दन सुनाई दे रहा है।
सारथी ने कहा - स्वामिन ! यह पशुओं का क्रन्दन है। आपके विवाहोत्सव में जो मांसभक्षी म्लेच्छ राजा आये हैं, उनके लिए इनका माँस तैयार किया जाएगा। मृत्यु के भय से क्रन्दन कर रहे हैं। सारथी के वचन सुनकर कुमार ने कहा - एक की प्रसन्नता के लिए दूसरों की हिंसा करना घोर अधर्म है। सारथी ! मैं विवाह के लिए तनीक भी उत्सुक नहीं हूँ। तुम इन प्राणियों को बन्धनमुक्त कर दो। पशु - पक्षियों को तत्क्षण मुक्त कर दिया गया। कुमार ने
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